________________ परिशिष्ट-१] [ 567 १--चम्पा नगरी के समान मनुष्यगति, धन्य सार्थवाह के समान एकान्त दयालु भगवान् तीर्थंकर और अहिछत्रा नगरी के समान निर्वाण समझना चाहिए। २-धन्य सार्थवाह की घोषणा के समान तीर्थकर भगवान् की मोक्षमार्ग की अनमोल देशना और चरक आदि के समान मुक्ति-सुख को कामना करने वाले बहुतेरे प्राणी जानना चाहिए / ३-मोक्षमार्ग को अंगीकार करने वालों के लिए इन्द्रियों के विषय (विषमय) नंदीफल के समान हैं। जैसे नंदीफलों के भक्षण से मरण कहा, उसी प्रकार यहाँ इन्द्रियविषयों के सेवन से संसार-जन्म-मरण जानना चाहिए / ४-नन्दीफलों के नहीं सेवन करने से जैसे इष्ट पुर (अहिछत्रा नगरी) की प्राप्ति कही, उसी प्रकार विषयों के परित्याग से निर्वाण-नगर की प्राप्ति होती है, जो परमानन्द का कारण है / सोलहवाँ अध्ययन १-सुबहू वि तव-किलेसो, नियाणदोसेण दूसिओ संतो। __ न सिवाय दोवतीए, जह किल सुकुमालियाजम्मे / / अथवा २–अमणुन्नमभत्तीए, पत्ते दाणं भवे अणत्याय / जह कडुयतुंबदाणं, नागसिरिभवंमि दोवईए / १–तपश्चर्या का कोई कितना ही कष्ट क्यों न सहन करे किन्तु जब वह निदान के दोष से दूषित हो जाती है तो मोक्षप्रद नहीं होती, जैसे सुकुमालिका के भव में द्रौपदी के जीव का तपश्चरण-क्लेश मोक्षदायक नहीं हुआ। अथवा इस अध्ययन का उपनय इस प्रकार समझना चाहिए-सुपात्र को भी दिया गया आहार अगर अमनोज्ञ हो और भक्तिपूर्वक न दिया गया हो तो अनर्थ का कारण होता है, जैसे नागधी ब्राह्मणी के भव में द्रौपदी के जीव द्वारा दिया कटुक तुम्बे का दान / सत्तरहवां अध्ययन १-जह सो कालियदीवो अणुवमसोक्खो तहेव जइधम्मो / जह आसा तह साहू, वणियव्यऽणुकूलकारिजणा // २-जह सद्दाइ-अगिद्धा पत्ता नो पासबंधणं आसा / ___ तह विसएसु अगिद्धा, वझंति न कम्मणा साहू // ३--जह सच्छंदविहारो, आसाणं तह य इह वरमुणीणं / जर-मरणाइविवज्जिय-संपत्ताणंद-निवाणं // ४--जह सद्दाइसु गिद्धा, बद्धा आसा तहेव विसयरया। पावेंति कम्मबंध, परमासुहकारणं घोरं // ५---जह ते कालियदीवा जोया अन्नत्थ दुहगणं पत्ता। तह धम्मपरिभट्ठा, अधम्मपत्ता इहं जीवा / / ६--पाति कम्म-नरवइ-वसया संसार-वायालीए / आसप्पमद्दएहि ब, नेरइयाईहिं दुक्खाई॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org