________________ परिशिष्ट-१] [569 4 --जैसे उन्होंने अटवो पार करने और नगर तक पहुँचने के उद्देश्य से ही सुता के माँस का भक्षण किया, उसी प्रकार साधु, गुरु की आज्ञा से ग्राहार करते हैं। ५-वे भवितात्मा एवं महासत्त्वशाली मुनि श्राहार करते हैं एक मात्र संसार को पार करने और मोक्ष प्राप्त करने के ही उद्देश्य से / प्रासक्ति से अथवा शरीर के वर्ण, बल या रूप के लिए नहीं / उन्नीसवाँ अध्ययन १-वाससहस्सं पि जई, काऊणं संजमं सुविउलं पि / __अंते किलिनुभावो, न विसुज्झइ कंडरीयब्व / / २---अप्पेण वि कालेणं, केइ जहा गहियसीलसामण्णा / साहिति निययकज्जं, पुंडरीयमहारिसि व्य जहा // 1- कोई हजार वर्ष तक अत्यन्त विपुल-उच्चकोटि के संयम का पालन करे किन्तु अन्त में उसकी भावना संक्लेशयुक्त-मलीन हो जाए तो वह कंडरीक के समान सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता। २-इसके विपरीत, कोई शोल एवं श्रामण्य-साधुधर्म को अंगीकार करके अल्प काल में भी महषि पुडरीक के समान अपने प्रयोजन को-शुद्ध प्रात्मस्वरूप की प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org