Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 644
________________ [ ज्ञाताधर्मकथा १-जिनका मन मिथ्यात्व से मूढ बना हुआ है, जो पापों में अतीव आसक्त हैं और गुणों से शून्य हैं वे प्राणी भी श्रेष्ठ गुरु का प्रसाद पाकर गुणवान् बन जाते हैं, जैसे (सुबुद्धि अमात्य के प्रसाद से) खाई का गन्दा पानी शुद्ध, सुगंधसम्पन्न और उत्तम जल बन गया / तेरहवाँ अध्ययन १-संपन्नगुणो वि जओ, सुसाहु-संसग्गवज्जिओ पायं / पावइ गुणपरिहाणि, ददुरजीवोव्व मणियारो॥ अथवा २-तित्थयरवंदणत्थं चलिओ भावेण पावए सग्गं / जह दद्दुरदेवेणं, पत्तं वेमाणियसुरत्तं // १-कोई भव्य जीव गुण-सम्पन्न होकर भी, कभी-कभी सुसाधु के सम्पर्क से जब रहित होता है तो गुणों की हानि को प्राप्त होता है-सुसाधु-समागम के अभाव में उसके गुणों का ह्रास हो जाता है, जैसे नन्द मणिकार का जीव (सम्यक्त्वगुण की हानि के कारण) दर्दुर (मंडक) के पर्याय में उत्पन्न हुमा / अथवा इस अध्ययन का उपनय यों समझना चाहिए तीर्थकर भगवान् को बन्दना के लिए रवाना हुआ प्राणी (भले भगवान् के समक्ष न पहुँच पाए, मार्ग में ही उसका निधन हो जाए, तो भी वह) भक्ति भावना के कारण स्वर्ग प्राप्त करता है। यथा-दर्दुर (मेंढक) मात्र भावना के कारण वैमानिक देव-पर्याय को प्राप्त करने में समर्थ हो सका। चौदहवाँ अध्ययन १–जाव न दुक्खं पत्ता, माणभंसं च पाणिणो पायं / ताव न धम्मं गेहंति, भावओ तेयलीसुयन्व / १--प्रायः- कभी-कभी ऐसा होता है कि मनुष्यों को जब तक दुःख प्राप्त नहीं होता और जब तक उनका मान-मर्दन नहीं होता, तब तक वे तेतलीपुत्र अमात्य की तरह भावपूवक-अन्त:करण से धर्म को ग्रहण नहीं करते / पन्द्रहवां अध्ययन १-चंपा इव मणयगई, धणो व्व भयवं जिणो दएक्करसो। अहिछत्तानयरिसमं इह निव्वाणं मुणेयन्वं / / २-घोसणया इव तित्थंकरस्स सिवमग्गदेसणमहाधं / चरगाइणो ब्व इत्थं सिवसुहकामा जिया बहवे / / ३-नंदिफलाइ ध्व इहं सिवपहपडिवण्णगाण विसया उ। तब्भक्खणाओ मरणं, जह तह विसएहि संसारो // ४-तव्वज्जणेण जह इठ्ठपुरगमो विसयवज्जणेण तहा। परमाणंदनिबंधण-सिवपुरगमणं मुणेयध्वं / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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