Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 614
________________ 536 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जलते पाडिक्कियं उवस्सयं उवसंपज्जिताणं विहरित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाय जलते पाडिएक्कं उवस्सयं गिण्हइ, तत्थ णं अणिवारिया अणोहट्टिया सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, जाव आसयइ वा सयइ वा। ___निग्रंथी श्रमणियों द्वारा बार-बार अवहेलना की गई यावत् रोकी गई उस काली आर्यिका के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुअा-'जब मैं गृहवास में वसती थी, तब मैं स्वाधीन थी, किन्तु जब से मैंने मुडित होकर गृहत्याग कर अनगारिता की दीक्षा अंगीकार की है, तब से मैं पराधीन हो गई हूँ / अतएव कल रजनी के प्रभातयुक्त होने पर यावत् सूर्य के देदीप्यमान होने पर अलग उपाश्रय ग्रहण करके रहना ही मेरे लिए श्रेयस्कर होगा / उसने ऐसा विचार किया। विचार करके दूसरे दिन सूर्य के प्रकाशमान होने पर उसने पृथक् उपाश्रय ग्रहण कर लिया / वहाँ कोई रोकने वाला नहीं रहा, हटकने (निषेध करने) वाला नहीं रहा, अतएव वह स्वच्छंदमति हो गई और बारबार हाथ-पैर आदि धोने लगी, यावत् जल छिड़क-छिड़क कर बैठने और सोने लगी। ३०---तए णं सा कालो अज्जा पासत्या पासथविहारी, ओसण्णा ओसण्णविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाछंदा, अहाछंदविहारी, संसत्ता संसत्तविहारी, बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, झूसित्ता तीसं भताई अणसणाए छेएइ, छेदित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअप्पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरचंचाए रायहाणोए कालडिसए भवणे उववायसभाए देवसणिज्जंसि देवदूसंतरिया अंगुलस्स असंखेज्जाए भागमेत्ताए ओगाहणाए कालीदेवित्ताए उववन्ना / तत्पश्चात् वह काली प्रार्या पासत्था (पार्श्वस्था-ज्ञान दर्शन चारित्र के पास रहने वाली) पासथविहारिणी, अवसन्ना, (धर्म-क्रिया में आलसी) अवसन्नविहारिणी, कुशीला, कुशीलविहारिणी, यथाछंदा (मनचाहा व्यवहार करने वाली), यथाछंदविहारिणी, संसक्ता (ज्ञानादि की विराधना करने वाली) तथा संसक्तविहारिणी होकर, बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (साध्वी-अवस्था का पालन करके, अर्द्धमास (एक पखवाड़े) की संलेखना द्वारा आत्मा (अपने शरीर) को क्षीण करके तीस बार के भोजन को अनशन से छेद कर, उस पापकर्म की पालोचना-प्रतिक्रमण किए बिना ही, कालमास में काल करके चमरचंचा राजधानी में, कालावतंसक नामक विमान में, उपपात (देवों के उत्पन्न होने की) सभा में, देवशय्या में, देवदूष्य वस्त्र से अंतरित होकर (देवदूष्य वस्त्र के नीचे) अंगुल के असंख्यातवें भाग की अवगाहना द्वारा, काली देवी के रूप में उत्पन्न हुई। ३१-तए णं सा काली देवी अहुणोववन्ना समाणी पंचविहाए पज्जत्तीए जहा सूरियाभो जाव भासामणपज्जत्तीए / तत्पश्चात् काली देवो उत्पन्न होकर तत्काल (अन्तर्मुहूर्त में) सूर्याभ देवी की तरह यावत् भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति आदि पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से युक्त हो गई। ३२–तए णं सा काली देवी चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव अण्णेसि च बहूणं कालवडेंसगभवणवासीणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव विहरई। एवं खलु गोयमा ! कालीए देवीए सा दिव्वा देविड्डी दिव्वा देवज्जुई दिव्वे देवाणुभावे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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