Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ द्वितीय श्रुतस्कन्ध : प्रथम वर्ग ]. [ 537 तत्पश्चात् वह काली देवी चार हजार सामानिक देवों तथा अन्य बहुतेरे कालावतंसक नामक भवन में निवास करने वाले असुरकुमार देवों और देवियों का अधिपतित्व करती हुई यावत् रहने लगी / इस प्रकार हे गौतम ! काली देवी ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवानुभाव प्राप्त किया है यावत् उपभोग में आने योग्य बनाया है / ३३-कालीए णं भंते ! देवीए केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! अड्डाइज्जाइं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। काली गं भंते ! देवो ताओ देवलोगाओ अणंतरं उववट्टित्ता कहिं गच्छिहिइ ? कहिं उववज्जिहिइ ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, जाव अंतं काहिइ / गौतम स्वामी ने प्रश्न किया---'भगवन् ! काली देवी की कितने काल की स्थिति कही भगवान्– 'हे गौतम ! अढ़ाई पल्योपम की स्थिति कही है।' गौतम-'भगवन् ! काली देवी उस देवलोक से अनन्तर चय करके (शरीर त्याग) कर कहाँ उत्पन्न होगी ?' भगवान्-'गौतम ! महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर यावत् सिद्धि प्राप्त करेगी यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगी।' ___३४-एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पढमवग्गस्स पढमज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि // 14 // श्री सुधर्मास्वामी अध्ययन का उपसंहार करते हुए कहते हैं- हे जम्बू ! यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है / वही मैंने तुमसे कहा है। ३५---जइ णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं पढमस्स वगस्स पढमज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते बिइयस्स णं भंते ! अज्झयणस्स समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं के अट्ठे पण्णत्ते ? ____ जम्बूस्वामी ने अपने गुरुदेव आर्य सुधर्मा से प्रश्न किया-'भगवन् ! यदि यावत् सिद्धि को प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने धर्मकथा के प्रथम वर्ग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ कहा है तो यावत् सिद्धिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ कहा है ?' ___३६–एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे, गुणसीलए चेइए, सामी समोसढे, परिसा णिग्गया जाव पज्जुवासइ / श्री सुधर्मास्वामी ने उत्तर दिया-हे जम्बू ! उस काल और उस समय में राजगृह नगर था तथा गुणशील नामक उद्यान था। स्वामी (भगवान् महावीर) पधारे / बन्दन करने के लिए परिषद् निकली यावत् भगवान की उपासना करने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org