________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 433 कराने वाली धाय और लेखिका (लिखने वाली) दासी के साथ उस चार घंटा वाले रथ पर आरूढ़ हुई। १२०-तए णं धट्ठज्जण्णे कुमारे दोवईए कण्णाए सारत्थं करेइ / तए णं सा दोवई रायवरकण्णा कंपिल्लपुरं नयरं मज्झमझेणं जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहं ठवेइ, ठवित्ता रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता किड्डावियाए लेहिगाए य सद्धि सयंवरमंडवं अणुपविसइ, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कटु तेसि वासुदेवपामुक्खाणं बहूणं रायवरसहस्साणं पणामं करेइ। उस समय धृष्टद्युम्न कुमार ने द्रौपदी कुमारी का सारथ्य किया, अर्थात् सारथी का कार्य किया। तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी कांपिल्यपुर नगर के मध्य में होकर जिधर स्वयंवर-मंडप था, उधर पहुँची। वहाँ पहुँच कर रथ रोका गया और वह रथ से नीचे उतरी / नीचे उतर कर क्रीडा कराने वाली धाय और लेखिका दासी के साथ उसने स्वयंवरमण्डप में प्रवेश किया। प्रवेश करके दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करके वासुदेव प्रभृति बहुसंख्यक हजारों राजाओं को प्रणाम किया। १२१–तए णं सा दोवई रायवरकन्ना एगं महं सिरिदामगंडं, कि ते ? पाडल-मल्लिय-चंपय जाव सत्तच्छयाईहिं गंधर्वाण मुयंतं परमसुहफासं दरिसणिज्जं गिण्हइ / तत्पश्चात् राजवरकन्या द्रौपदी ने एक बड़ा श्रीदामकाण्ड (सुशोभित मालाओं का समूह) ग्रहण किया / वह कैसा था ? पाटल, मल्लिका, चम्पक आदि यावत् सप्तपर्ण आदि के फूलों से गूथा हुअा था / अत्यन्त गंध को फैला रहा था / अत्यन्त सुखद स्पर्श वाला था और दर्शनीय था। १२२-तए णं सा किड्डाविया सुरूवा जाव [साभावियघंसं चोदहजणस्स उस्सुयकर विचित्तमणि-रयणवद्धच्छरुहं] वामहत्थेणं चिल्लगं दप्पणं गहेऊण सललियं दप्पणसंकेतबिंबसंदंसिए य से दाहिणेणं हत्थेणं दरिसिए पवररायसीहे। फुड-विसय-विसुद्ध-रिभिय-गंभीर-महुर-भणिया सा तेसि सन्वेसि पत्थिवाणं अम्मापिऊणं वंस-सत्त-सामत्थ-गोत्त-विक्कंति-कंति-बहुविहआगम-माहप्प-रूव-जोन्वणगुण-लावण्ण-कुल-सील-जाणिया कित्तणं करेइ / तत्पश्चात् उस क्रीडा कराने वाली यावत् सुन्दर रूप वाली धाय ने बाएँ हाथ में चिलचिलाता हुआ दर्पण लिया / [वह दर्पण स्वाभाविक घर्षण से युक्त एवं तरुण जनों में उत्सुकता उत्पन्न करने वाला था। उसको मूठ विचित्र मणि-रत्नों से जटित थी।] उस दर्पण में जिस-जिस राजा का प्रतिबिम्ब पड़ता था, उस प्रतिबिम्ब द्वारा दिखाई देने वाले श्रेष्ठ सिंह के समान राजा को अपने दाहिने हाथ से द्रौपदी को दिखलाती थी। वह धाय स्फुट (प्रकट अर्थ वाले) विशद (निर्मल अक्षरों वाले) विशुद्ध (शब्द एवं अर्थ के दोषों से रहित) रिभित (स्वर की घोलना सहित ) मेघ की गर्जना के समान गंभीर और मधुर (कानों को सुखदायी) वचन बोलती हुई, उन सब राजाओं के माता-पिता के वंश, सत्त्व (दृढ़ता एवं धीरता) सामर्थ्य (शारीरिक बल) गोत्र पराक्रम कान्ति नाना प्रकार के ज्ञान माहात्म्य रूप यौवन गुण लावण्य कुल और शील को जानने वाली होने के कारण उनका बखान करने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org