________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी ] [441 उस समय पद्मनाभ राजा ने कच्छुल्ल नारद को आता देखा / देखकर वह आसन से उठा / उठ कर सात-पाठ कदम सामने गया, तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया] अर्घ्य से उनकी पूजा की यावत् आसन पर बैठने के लिए उन्हें आमंत्रित किया / १४६-तए णं से कच्छुल्लणारए उदयपरिफोसियाए दब्भोवरिपच्चत्थुयाए भिसियाए निसीयइ, जाव' कुसलोदंतं आपुच्छइ / तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद ने जल से छिड़काव किया, फिर दर्भ बिछा कर उस पर प्रासन बिछाया और फिर वे उस आसन पर बैठे / बैठने के बाद यावत् कुशल-समाचार पूछे / १४७--तए णं से पउमनाभे राया णियगओरोहे जायविम्हए कच्छुल्लणारयं एवं वयासो'तुभं देवाणप्पिया ! बहूणि गामाणि जाव गेहाइं अणुपविससि, तं अस्थि याइं ते कहिचि देवाणुप्पिया एरिसए ओरोहे दिट्ठपुब्वे जारिसए णं मम ओरोहे ?' इसके बाद पद्मनाभ राजा ने अपनी रानियों (के सौन्दर्य आदि) में विस्मित होकर कच्छुल्ल नारद से प्रश्न किया-'देवानुप्रिय ! आप बहुत-से ग्रामों यावत् गृहों में प्रवेश करते हो, तो देवानुप्रिय ! जैसा मेरा अन्तःपुर है, वैसा अन्तःपुर आपने पहले कभी कहीं देखा है ?' १४८-तए णं से कच्छुल्लनारए पउमनाभेणं रण्णा एवं वृत्ते समाणे ईसि विहसियं करेइ, करिता एवं वयासी—'सरिसे णं तुमं पउमणाभा ! तस्स अगडदद्दुरस्स।' 'के णं देवाणुप्पिया! से अगडददुरे ?' एवं जहा मल्लिणाए। एवं खलु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीवे दोवे भारहे वासे हथिणाउरे दुपयस्स रण्णो धूया, चुलणीए देवीए अत्तया, पंडुस्स सुण्हा पंचण्हं पंडवाणं भारिया दोवई देवी रूवेण य जाव उक्किटुसरीरा। दोवईए णं देवीए छिन्नस्स वि पायंगुट्टयस्स अयं तव ओरोहे सइमं पि कलं ण अग्घइ त्ति कट्ट पउमणाभं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता जाव पडिगए। तत्पश्चात् राजा पद्मनाभ के इस प्रकार कहने पर कच्छुल्ल नारद थोड़ा मुस्कराए। मुस्करा कर बोले --'पद्मनाभ ! तुम कुए के उस मेंढक के सदृश हो।' (पद्मनाभ ने पूछा) देवानुप्रिय ! कौन-सा वह कुए का मेंढक ? जैसा मल्ली ज्ञात (अध्ययन) में कहा है, वही यहाँ कहना चाहिए।' (फिर बोले) 'देवानुप्रिय! जम्बूद्वीप में, भरतवर्ष में, हस्तिनापुर नगर में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा पाण्डु राजा की पुत्रवधू और पांच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी रूप से यावत् लावण्य से उत्कृष्ट है, उत्कृष्ट शरीर वाली है। तुम्हारा यह सारा अन्तःपुर द्रौपदी देवी के कटे हुए पैर के अंगूठे की सौवीं कला (अंश) की भी बराबरी नहीं कर सकता।' इस प्रकार कह कर नारद ने पद्मनाभ से जाने की अनुमति ली / अनुमति पाकर वह यावत् (तीव्र गति से) चल दिये। 1. प्र. 16, सूत्र 141 2. देखिए पृ. 257 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org