Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 482] [ ज्ञाताधर्मकथा पुरुषों ने बहुत से कोष्ठपुट तथा दूसरे घ्राणेन्द्रिय के प्रिय पदार्थों के पुज (ढेर) और निकर (बिखरे हुए समूह) कर दिये / उनके पास चारों ओर जाल बिछाकर वे मूक होकर छिप गये / २०-जत्थ जत्थ णं ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिट्ठति वा, तुयति वा, तत्थ तत्थ गुलस्स जाय अन्नेसि च बहूणं जिभिदियपाउम्गाणं दव्वाणं पुजे य णियरे य करेंति, करित्ता वियरए खणंति, खणित्ता गुलपाणगस्स खंडपाणगस्स पोरपाणगस्स अन्नेसि च बहूणं पाणगाणं वियरे भरेंति, भरिता तेसि परिपेरतेणं पासए ठवेति जाव चिटठति / जहाँ-जहाँ वे अश्व बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे अथवा लोटते थे, वहाँ-वहाँ कौटम्बिक पुरुषों ने गुड के यावत् अन्य बहुत-से जिह्वन्द्रिय के योग्य पदार्थों के पुज और निकर कर दिये। करके उन जगहों पर गड़हे खोदे ! खोद कर गुड़ का पानी, खांड का पानी, पोर (ईख) का पानी तथा दूसरा बहुत तरह का पानी उन गड़हों में भर दिया / भरकर उनके पास चारों ओर जाल स्थापित करके मूक होकर छिप रहे / २१-हिं जहिं च णं ते आसा आसयंति वा, सयंति वा, चिट्ठति वा, तुयति वा, तहिं हि च णं ते बहवे कोयवया य जाव सिलावट्टया अण्णाणि य फासिदियपाउग्गाई अत्थुयपच्चत्थुयाई ठति, ठवित्ता तेसि परिपेरंतेणं जाव चिट्ठति / जहाँ-जहाँ वे घोड़े बैठते थे, सोते थे, खड़े होते थे यावत् लोटते थे, वहाँ-वहाँ कोयवक (रुई के वस्त्र) यावत् शिलापट्टक (चिकनी शिला) तथा अन्य स्पर्शनेन्द्रिय के योग्य प्रास्तरण--प्रत्यास्तरण (एक दूसरे के ऊपर बिछाए हुए वस्त्र) रख दिये। रख कर उनके पास चारों ओर जाल बिछा कर एवं मूक होकर छिप गए। २२-तए णं ते आसा जेणेव एए उक्किट्ठा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं अत्थेगइया आसा 'अपुटवा णं इमे सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा' इति कट्ट तेसु उक्किठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु अमुच्छिया अगढिया अगिद्धा अणज्झोववण्णा, तेसि उक्किट्टाणं सद्द जाब गंधाणं दूरंदूरेणं अवक्कमंति, ते णं तत्थ पउरगोयरा पउरतणपाणिया णिब्भया णिरुविग्गा सुहंसुहेणं विहरंति। तत्पश्चात् वे अश्व वहाँ पाये, जहाँ यह उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध (वाली वस्तुएं) रखी थीं। वहाँ आकर उनमें से कोई-कोई अश्व 'ये शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध अपूर्व हैं अर्थात् पहले कभी इनका अनुभव नहीं किया है, ऐसा विचार कर उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूच्छित, गृद्ध, आसक्त न होकर उन उत्कृष्ट शब्द यावत् गंध से दूर चले गये। वे अश्व वहाँ जाकर बहुत गोचर (चरागाह) प्राप्त करके तथा प्रचुर घास-पानी पीकर निर्भय हुए, उद्वेग रहित हुए और सुखे-सुखे विचरने लगे। कथानक का निष्कर्ष - २३–एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org