Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 522]] [ज्ञाताधर्मकथा आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स से आहारे णो सम्म परिणमइ / तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूया उज्जला जाव' दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए विहरह। तत्पश्चात् पुडरीक अनगार उस कालातिकान्त (जिसके खाने का समय बीत गया है ऐसे), रसहीन, खराब रस वाले तथा ठंडे और रूखे भोजन पानी का आहार करके मध्य रात्रि के समय धर्म जागरण कर रहे थे। तब वह अाहार उन्हें सम्यक् रूप से परिणत न हुआ। उस समय पुंडरीक अनगार के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, प्रचण्ड एवं दुःखरूप, दुस्सह वेदना उत्पन्न हो गई। उनका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया और शरीर में दाह होने लगा। उग्र साधना का सुफल २९–तए णं ते पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे करयल जाव एवं वयासी नमोऽत्य णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं, णमोऽत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मारियाणं धम्मोवएसयाणं, पुदिव पि य णं मए थेराण अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव मिच्छादसणसल्ले णं पच्चक्खाए' जाव आलोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा सम्वदृसिद्धे उववण्णे / ततोऽणंतरं उध्वट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहिइ। तत्पश्चात् पुडरीक अनगार निस्तेज, निर्बल, वीर्यहीन और पुरुषकार-पराक्रमहीन हो गये। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार कहा यावत् सिद्धिप्राप्त अरिहंतों को नमस्कार हो। मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक स्थविर भगवान् को नमस्कार हो / स्थविर के निकट पहले भी मैंने समस्त प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया, यावत् मिथ्यादर्शन शल्य का (अठारहों पापस्थानों) का त्याग किया था, इत्यादि कहकर यावत् शरीर का भी त्याग करके आलोचना प्रतिक्रमण करके, कालमास में काल करके सर्वार्थ सिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवपर्याय में उत्पन्न हए / वहाँ से अनन्तर च्यवन करके, अर्थात बीच में कहीं अन्यत्र जन्म न लेकर सीधे महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर सिद्धि प्राप्त करेंगे / यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेंगे। ३०--एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे माणुस्सएहि कामभोगेहि णो सज्जइ, णो रज्जइ, जाव नो विप्पडिघायमावज्जइ, से गं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं अच्चणिज्चे वंदणिज्जे पूणिज्जे सक्कारणिज्जे सम्माणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जे त्ति कटु परलोए विय णं णो आगच्छइ बहणि दंडणाणि य मुंडणाणि य तज्जणाणि य ताडणाणि य जाव चाउरंतसंसारकंतारं जाव वीईवइस्सइ, जहा व से पोंडरीए राया। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! जो हमारा साधू या साध्वी दीक्षित होकर मनुष्य संबंधी कामभोगों में प्रासक्त नहीं होता, अनुरक्त नहीं होता, यावत् प्रतिघात को प्राप्त नहीं होता, वह इसी भव व बहुत श्रमणों, बहुत श्रमणियों, बहुत श्रावकों और बहुत श्राविकाओं द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, 1. अ. 19, सूत्र 24 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org