Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 598
________________ 520 ] [ ज्ञाताधर्मकथा पाँच मुट्ठियों से ही हो जाता है अथवा अतिरिक्त मुट्ठियों से ? अगर अतिरिक्त मुट्ठियों से होता है तो उसे पंचमुष्टिक लोच कैसे कहा जाता है ? भगवान् ऋषभदेव के लोच सम्बन्ध में लिखा है--(ऋषभंः) सयमेव चउहिं अट्टाहि मुट्टिहिं लोयं करेइ-स्वयमेव चतसृभिः (अट्ठाहिं ति) मुष्टिभिः करणभूताभिलुञ्चनीयकेशानां पञ्चमभागलुञ्चिकाभिरित्यर्थः, लोचं करोति, अपरालङ्कारादिमोचनपूर्वकमेव शिरोलंकारादिमोचनं विधिक्रमायेति पर्यन्ते मस्तकालंकारकेशामोचनम् / तीर्थकृता पञ्चमुष्टिकलोचसम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिकलोचगोचरः श्रीहेमचन्द्राचार्यकृत-ऋषभचरित्राद्यभिप्रायोऽयम्-प्रथममेकया मुष्ट्याश्मश्रुकूर्चयोलोंचे, तिसृभिश्च शिरोलोचे कृते, एकां मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलिनां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोरुपरि लुठन्तीं मरकतोपमानमाविभ्रतीं परमरमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेणभगवन् ! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामेव इत्थमेवेति विज्ञप्ते भगवताऽपि तथैव रक्षिताः / __ इस उद्धरण से विदित होता है कि एक मुद्दो से, लोच करने के योग्य समस्त केशों के पाँचवें भाग का उत्पाटन किया जाता है। किन्तु भ० ऋषभदेव ने चार-मुट्ठी लोच किया। वह इस प्रकार-पहली एक मुट्ठी से दाढी और मूछों के केश उखाड़े और तीन मुष्टियों से सिर के केश उखाड़े / जब एक मुट्ठो शेष रही तब भगवान् के दोनों कन्धों पर केशराशि सुशोभित हो रही थी। भगवान् के स्वर्ण-वर्ण कन्धों पर मरकत मणि की सी अतिशय रमणीय केशराशि को देख कर शक्रेन्द्र को प्रमोदभाव उत्पन्न हुआ और उसने प्रार्थना की--'भगवन् ! मुझ पर अनुग्रह करके इस केशराशि को इसी प्रकार रहने दीजिए।' भगवान् ने इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार करके वैसी ही रहने दी। इससे स्पष्ट है कि दोनों कन्धों के ऊपर वाले केश एक पाँचवीं मुट्ठी से उखाड़े जाते हैं। यह भी सम्भव है कि किस मुट्ठी से कौन से केश उखाड़े जाएँ, ऐसा कोई प्रतिबन्ध न हो; केवल यही अभीष्ट हो कि पांच मुट्टियों में मस्तक, दाढी और मूछों के समस्त केश उखड़ जाने चाहिए। कम्बरीक को पुनः गणता २४-तए णं तस्स कंडरीयस्य रणोतं पणीयं पाणभोयणं आहारियस्स समाणस्स अतिजागरिएण य अइभोयणप्पसंगेण य से आहारे णो सम्मं परिणमह / तए णं तस्स कंडरीयस्स रण्णो तंसि आहारंसि अपरिणममाणंसि पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सरीरंसि वेयणा पाउम्भूया उज्जला विउला कक्खडा पगाढा जाव [चंडा दुक्खा] दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए यावि होत्था। तत्पश्चात् प्रणीत (सरस पौष्टिक) पाहार करने वाले कण्डरीक राजा को प्रति जागरण करने से और मात्रा से अधिक भोजन करने के कारण वह आहार अच्छी तरह परिणत नहीं हुआ, पच नहीं सका / उस आहार का पाचन न होने पर, मध्य रात्रि के समय कण्डरीक राजा के शरीर में उज्ज्वल, विपुल, कर्कश, अत्यन्त गाढ़ी, प्रचंड और दुःखद वेदना उत्पन्न हो गई। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया / अतएव उसे दाह होने लगा / कण्डरीक ऐसी रोगमय स्थिति में रहने लगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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