Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सत्तरहवां अध्ययन : प्राकीर्ण ] [ 483 णो सज्जइ, से णं इहलोगे चेव बहूणं समणाणं समणोणं सावयाणं सावियाणं अच्चणिज्जे जाव [चाउरंतसंसारकतारं] वीइवयइ। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो! हमारा जो साधु या साध्वी शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में आसक्त नहीं होता, वह इस लोक में बहुत साधुनों, साध्वियों, श्रावकों और श्राविकाओं का पूजनीय होता है और इस चातुर्गतिक संसार-कान्तार को पार कर जाता है / विषयलोलुपता का दुष्परिणाम २४--तत्थ णं अत्थेगइया आसा जेणेव उक्किट्ठ सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तेसु उक्किट्ठेसु सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधेसु मुच्छिया जाव अज्झोववण्णा आसेविउं पयत्ता यावि होत्था / तए णं ते आसा एए उक्किट्ठ सद्द-फरिस-रस-रुव गंधा आसेवमाणा तेहि बहूहि कूडेहि य पासेहि य गलएसु य पाएसु य बझंति / उन घोड़ों में से कितनेक घोड़े जहाँ वे उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध थे, वहाँ पहुँचे / वहाँ पहुँच कर वे उन उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध में मूच्छित हए, अति आसक्त हो गए और उनका सेवन करने में प्रवृत्त हो गए / तत्पश्चात् उस उत्कृष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का सेवन करने वाले वे अश्व कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बहुत से कूट पाशों (कपट से फैलाए गए बंधनों) से गले में यावत् पैरों में बाँधे गए-बंधनों से बाँधे गए--पकड़ लिए गए। २५-तए णं ते कोडुबिया एए आसे गिण्हंति, गिण्हित्ता एगट्ठियाहि पोयवहणे संचारेंति, संचारित्ता तणस्स कटुस्स जाव' भरेति / तए णं ते संजत्ताणावावाणियगा दक्खिणाणुकलेणं वाएणं जेणेव गंभीरपोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पोयवहणं लंबेति, लंबिता ते आसे उत्तारेंति, उत्तारित्ता जेणेव हथिसीसे णयरे, जेणेव कणगकेऊ राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धाति वद्धावित्ता ते आसे उवणेति। तए णं से कणगकेऊ राया तेसि संजत्ताणावावाणियगाणं उस्सुक्कं वियरइ, वियरित्ता सक्कारेइ, मंमाणेइ, सक्कारिता संमाणित्ता पडिविसज्जेइ। . तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने उन अश्वों को पकड़ लिया। पकड़ कर वे नौकाओं द्वारा पोतवहन में ले आये / लाकर पोतवहन को तृण, काष्ठ आदि आवश्यक पदार्थों से भर लिया। तत्पश्चात् वे सांयात्रिक नौकावणिक् दक्षिण दिशा के अनुकूल पवन द्वारा जहाँ गंभीर पोतपट्टन था, वहाँ आये / आकर पोतवहन का लंगर डाला। लंगर डाल कर उन घोड़ों को उतारा / उतार कर जहाँ हस्तिशीर्ष नगर था और जहाँ कनककेतु राजा था, वहाँ पहुँचे / पहुँच कर दोनों हाथ जोड़कर राजा का अभिनन्दन किया / अभिनन्दन करके वे अश्व उपस्थित किये। राजा कनककेतु ने उन सांयात्रिक वणिकों का शुल्क माफ कर दिया / उनका सत्कार-सन्मान किया और उन्हें विदा किया। 1. प्र. 17. सूत्र 16. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org