________________ 500 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् उन पांच सौ चोरों ने एक दूसरे को बुलाया (सब इकट्ठे हुए)। तब उन्होंने अापस में कहा -'देवानप्रियो ! हमारा चोरसेनापति विजय कालधर्म (मरण) से संयुक्त हो गया है और विजय चोरसेनापति ने इस चिलात तस्कर को बहुत-सी चोरविद्याएँ प्रादि सिखलाई हैं। अतएव देवानुप्रियो ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर होगा कि चिलात तस्कर का सिंहगुफा चोरपल्ली के चोरसेनापति के रूप में अभिषेक किया जाय / इस प्रकार कह कर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की। चिलात तस्कर को सिंहगुफा चोरपल्ली के चोरसेनापति के रूप में अभिषिक्त किया। तब वह चिलात चोरसेनापति हो गया तथा विजय के समान ही अधार्मिक क्रूरकर्मा एवं पापाचारी होकर रहने लगा। १९-तए णं से चिलाए चोरसेणावई चोरणायगे जाव' कुडंगे यावि होत्था / से णं तत्थ सोहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाण य एवं जहा विजओ तहेव सव्वं जाव रायगिहस्स दाहिण पुरच्छिमिल्लं जणवयं जाव णित्थाणं निद्धणं करेमाणे विहरह। ___वह चिलात चोरसेनापति चोरों का नायक यावत् कुडंग (वाँस की झाड़ी) के समान चोरों जारों आदि का आश्रयभूत हो गया। वह उस सिंहगुफा नामक चोरपल्ली में पांच सौ चोरों का अधिपति हो गया, इत्यादि विजय चोर के वर्णन के समान समझना चाहिए। यावत् वह राजगृह नगर के दक्षिण-पूर्व के जनपद निवासी जनों को स्थानहीन और धनहीन बनाने लगा। २०–तए णं से चिलाए चोरसेणावई अन्नया कयाई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता पंच चोरसए आमंतेइं। तओ पच्छा पहाए कयबलिकम्मे भोयणमंडवंसि तेहिं पंचहि चोरसएहि सद्धि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च जाव [मज्जं च मंसं च सीधुच] पसणं च आसाएमाणे विसाएमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे बिहरई। जिभियभुत्तुत्तरागए ते पंच चोरसए विपलेणं धव-पुष्फ-गंध-मल्लालंकारेणं सक्कारेइ, संमाणेइ, सक्कारिता सम्माणित्ता एवं वया तत्पश्चात् चिलात चोरसेनापति ने एक बार किसी समय विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवा कर पांच सौ चोरों को आमंत्रित किया / फिर स्नान तथा बलिकर्म करके भोजन-मंडप में उन पांच सौ चोरों के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का तथा सुरा (मद्य, मांस, सीधु तथा) प्रसन्ना नामक मदिराओं का प्रास्वादन, विस्वादन, वितरण एवं परिभोग करने लगा। भोजन कर चुकने के पश्चात् पांच सौ चोरों का विपुल धूप, पुष्प, गंध, माला और अलंकार से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार सन्मान करके उनसे इस प्रकार कहा धन्य सार्थवाह के घर को लूट : धन्य-कन्या का अपहरण २१–एवं खलु देवाणुप्पिया ! रायगिहे गयरे धण्णे णामं सत्यवाहे अड्ढे, तस्स णं धूया भद्दाए अत्तया पंचण्हं पुत्ताणं अणुमग्गजाइया सुसुमा णामं दारिया यावि होत्था अहीणा जाव सुरूवा। तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! धण्णस्स सत्थवाहस्स गिहं विलुपामो। तुभं विपुले धणकणग जाव [रयण-मणि-मोत्तिय-संख-] सिलप्पवाले, ममं सुसुमा दारिया।' तए णं ते पंच चोरसया चिलायस्स चोरसेणावइस्स एयमझै पडिसुणेति / 1. अ. 18 सूत्र 12 2. देखिए, द्वितीय अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org