________________ 508] [ ज्ञाताधर्मकथा सार्थवाह ने 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति: पण्डित' की लोकोक्ति का अनुसरण करते हुए अपने वध का प्रस्ताव उपस्थित किया / ज्येष्ठ पुत्र ने उसे स्वीकार करने में अपनी असमर्थता प्रकट की और अपने वध की बात सुझाई / अन्य भाइयों ने उसकी बात भी मान्य नहीं की / सभी के वध का प्रस्ताव दूसरे किसी भाई को स्वीकार्य नहीं हुमा / यह प्रसंग हमारे समक्ष कौटाम्बिक संबंध के विषय में अतीव स्पृहणीय आदर्श प्रस्तुत करता है। पुत्रों के प्रति पिता का, पिता के प्रति पुत्रों का, भाई के प्रति भाई का स्नेह कितना प्रगाढ और उत्सर्गमय होना चाहिए / पारस्परिक प्रीति की मधुरिमा इस वर्णन से स्पष्ट है / प्रत्येक, प्रत्येक को प्राण-रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने का अभिलाषी है। इससे अधिक त्याग और बलिदान अन्य क्या हो सकता है ! वस्तुतः यह चित्रण भारतीय साहित्य में असाधारण है, साहित्य की अमूल्य निधि है। अन्तिम निर्णय ३९-तए णं धण्णे सत्थवाहे पंचपुत्ताणं हियइच्छियं जाणित्ता ते पंच पुत्ते एवं क्यासी—'मा णं अम्हे पुत्ता ! एगमवि जीवियाओ ववरोवेमो, एस णं सुसमाए दारियाए सरीरे गिप्पाणे जाव [निच्चेठे] जीवविप्पजढे, तं सेयं खलु पुत्ता ! अम्हं सुसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेत्तए। तए णं अम्हे तेणं आहारेणं अवस्थद्धा समाणा रायगिहं संपाउणिस्सामो।' तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के हृदय की इच्छा जान कर पांचों पुत्रों से इस प्रकार कहा-'पुत्रो ! हम किसी को भी जीवन से रहित न करें। यह सुसुमा का शरीर निष्प्राण निश्चेष्ट और जीव द्वारा त्यक्त है, अतएव हे पुत्रो ! सुसुमा दारिका के मांस और रुधिर का पाहार करना हमारे लिए उचित होगा। हम लोग उस आहार से स्वस्थ होकर राजगृह को पा लेंगे। ४०-तए णं ते पंच पुत्ता धण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा एयमझें पडिसुणेति / तए णं धण्णे सत्यवाहे पंचहि पुत्तेहि सद्धि अरणि करेइ, करिता सरगं च करेइ, करिता सरएणं अरणि महइ, महित्ता अग्गि पाडेइ, पाडित्ता अग्गि संधुक्खेइ, संधुक्खित्ता दारुयाई पक्खेवेइ, पक्खेवित्ता अग्गि पज्जालेइ, पज्जालित्ता सुसुमाए दारियाए मंसं च सोणियं च आहारेइ / धन्य सार्थवाह के इस प्रकार कहने पर उन पांच पुत्रों ने यह बात स्वीकार की। तब धन्य सार्थवाह ने पांचों पुत्रों के साथ अरणि की (अरणि काष्ठ में गड़हा किया)। फिर शर बनाया (अरणि की लम्बी लकड़ी तैयार की)। दोनों तैयार करके शर से अरणि का मंथन किया। मंथन करके अग्नि उत्पन्न की। फिर अग्नि धौंकी / उसमें लकड़ियाँ डालीं। अग्नि प्रज्वलित की / प्रज्वलित करके सुसमा दारिका का मांस पका कर उस मांस का और रुधिर का आहार किया। राजगृह में वापिसी ४१-तए णं आहारेणं अवत्थद्धा समाणा रायगिहं नार संपत्ता मित्तणाई नियग-सयणसंबंधि-परिजणं अभिसमण्णागया, तस्स य विउलस्स धणकणगरयण जाव' आभागी जाया वि होत्था। 1. प्र. 18 सूत्र 21. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org