________________ 440 ] [ ज्ञाताधर्मकथा समुप्पज्जित्था-'अहो णं दोवई देवी रूवेणं जाव [जोवणेण य] लावण्णेण य पंचहि पंडवेहि अणुबद्धा समाणी ममं नो आढाइ, जाव नो पज्जुवासइ, तं सेयं खलु मम दोवईए देवीए विप्पियं करित्तए' त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता पंडुयरायं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता उप्पणि विज्ज आवाहेइ, आवाहिता ताए उक्किट्ठाए जाव विज्जाहरगईए लवणसमुई मज्झंमज्झेणं पुरस्थाभिमुहे वीइवइउं पयत्ते यावि होत्था / तब कच्छुल्ल नारद को इस प्रकार का अध्यवसाय चिन्तित (विचार) प्रार्थित (इष्ट) मनोगत (मन में स्थित) संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'अहो ! यह द्रौपदी देवी अपने रूप यौवन लावण्य और पाँच पाण्डवों के कारण अभिमानिनी हो गई है, अतएव मेरा आदर नहीं करती यावत् मेरो उपासना नहीं करती / अतएव द्रौपदी देवी का अनिष्ट करना मेरे लिए उचित है।' इस प्रकार नारद ने विचार किया। विचार करके पाण्ड राजा से जाने की प्राज्ञा ली। फिर उत्पतनी उडने की) विद्या का आह्वान किया / आह्वान करके उस उत्कृष्ट यावत् विद्याधर योग्य गति से लवणसमुद्र के मध्यभाग में होकर, पूर्व दिशा के सन्मुख, चलने के लिए प्रयत्नशील हुए। नारद का अमरकंका-गमन--जाल रचना १४४--तेणं कालेणं तेणं समएणं धायइसंडे दोवे पुरथिमद्धदाहिणभरहवासे अमरकंका नाम रायहाणी होत्था। तत्थ णं अमरकंकाए रायहाणीए पउमणाभे णामं राया होत्था, महया हिमवंत वण्णओ। तस्स णं पउमणाभस्स रणो सत्त देवीसयाई ओरोहे होत्था / तस्स णं पउमणाभस्स रणो सुनाभे नाम पुत्ते जुवराया यावि होत्था। तए णं से पउमनाभे राया अंतो अंतेउरंसि ओरोहसंपरिडे सिंहासणवरगए विहरइ / उस काल और उस समय में धातकीखण्ड नामक द्वीप में पूर्व दिशा की तरफ के दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र में अमरकंका नामक राजधानी थी। उस अमरकंका राजधानी में पद्मनाभ नामक राजा था / वह महान् हिमवन्त पर्वत के समान सार वाला था, इत्यादि वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार समझना चाहिए / उस पद्मनाभ राजा के अन्तःपुर में सात सौ रानियाँ थीं / उसके पुत्र का नाम सुनाभ था / वह युवराज भी था। (जिस समय का यह वर्णन है) उस समय पद्मनाभ राजा अन्तःपुर में रानियों के साथ उत्तम सिंहासन पर बैठा था। १४५-तए णं से कच्छुल्लणारए जेणेव अमरकंका रायहाणी, जेणेव पउमनाभस्स भवणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पउमनाभस्स रन्नो भवणंसि झत्ति वेगेणं समावइए। ___ तए णं से पउमणाभे राया कच्छुल्लं नारयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता आसणाओ अब्भुठेइ, अब्भुद्वित्ता अग्घेणं जाव' आसणेणं उवणिमंतेइ। तत्पश्चात् कच्छुल्ल नारद जहाँ अमरकंका राजधानी थी और जहाँ राजा पद्मनाभ का भवन था, वहाँ पाये / पाकर पद्मनाभ राजा के भवन में वेगपूर्वक शीघ्रता के साथ उतरे / 1. धातकीखण्ड द्वीप में भरत प्रादि सभी क्षेत्र दो-दो की संख्या में हैं। उनमें से पूर्व दिशा के भरतक्षेत्र के दक्षिण ' भाग में अमरकंका राजधानी थी। 2. प्र. 16 सूत्र 140 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org