________________ 438] [ ज्ञाताधर्मकथा ___ १३५-तए णं से पंडुराया अन्नया कयाई पंचहि पंडवेहि कोंतीए देवीए दोवईए देवीए य सद्धि अंतो अंतेउरपरियाल सद्धि संपरिवुडे सीहासणवरगए यावि होत्था / पाण्डु राजा एक बार किसी समय पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी और द्रौपदी देवी के साथ तथा अन्तःपुर के अन्दर के परिवार के साथ परिवृत होकर श्रेष्ठ सिंहासन पर आसीन थे। नारद का आगमन 139- इमं च णं कच्छुल्लणारए दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतो अंतो य कलुसहियए मज्झत्थोवस्थिए य अल्लीण-सोम-पिय-दसणे सुरूवे अमइलसगलपरिहिए कालमियचम्म-उत्तरासंगरइयवत्थे दंडकमंडलुहत्थे जडामउडदित्तसिरए जन्नोवइय-गणेत्तिय-मुजमेहल-वागलधरे हत्थकयकच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संवरणावरणिओवयणउत्पयणि-लेसणीसु य संकामणिअभिओगि-पण्णत्ति-गमणी-थंभोसु य बहसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे इठें रामस्स य केसवस्स य पज्जुन्न-पईव-संब-अनिरुद्ध-निसढ-उम्मुय-सारण-गय-सुमुह-दुम्मुहाईण जायवाणं अधुट्ठाण कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलह-जुद्ध-कोलाहलप्पिए भंडणाभिलासी बहुसु य समरेसु य संपराएसु य दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे असमाहिकरे दसारवरवीरपुरितिलोक्कबलवगाणं आमंतेऊण तं भगवति पक्कणि गगण-गमण-दच्छं उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो गामागार-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टण-संवाह-सहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं निभरजणपदं वसुहं ओलोइंतो रम्मं हत्थिणाउरं उवागए पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवइए / इधर कच्छुल्ल नामक नारद वहाँ आ पहुँचे / वे देखने में अत्यन्त भद्र और विनीत जान पड़ते थे, परन्तु भीतर से केलिप्रिय होने के कारण उनका हृदय कलुषित था / ब्रह्मचर्यव्रत के धारक होने से वे मध्यस्थता को प्राप्त थे / आश्रित जनों को उनका दर्शन प्रिय लगता था। उनका रूप मनोहर था। उन्होंने उज्ज्वल एवं सकल (अखंड अथवा शकल अर्थात वस्त्रखंड) पहन रखा था। काला मृगचर्म उत्तरासंग के रूप में वक्षस्थल में धारण किया था / हाथ में दंड और कमण्डलु था। जटा रूपी मुकुट से उनका मस्तक शोभायमान था। उन्होंने यज्ञोपवीत एवं रुद्राक्ष की माला के प्राभरण, मूज को कटिमेखला और वल्कल वस्त्र धारण किए थे। उनके हाथ में कच्छपी नामकी वीणा थी। उन्हें संगीत से प्रीति थी। आकाश में गमन करने की शक्ति होने से वे पृथ्वी पर बहुत कम गमन करते थे। संचरणी (चलने को), प्रावरणी (ढंकने की), अवतरणी (नीचे उतरने की), उत्पतनी (ऊँचे उड़ने की), श्लेषणी (चिपट जाने की), संक्रामणी (दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की), अभियोगिनी (सोना चांदी आदि बनाने की), प्रज्ञप्ति (परोक्ष वृत्तान्त को बतला देने की), गमनी (दुर्गम स्थान में भी जा सकने को) और स्तंभिनी (स्तब्ध कर देने की) आदि बहुत-सी विद्याधरों संबंधी विद्याओं में प्रवीण होने से उनकी कीत्ति फैली हुई थी / वे बलदेव और वासुदेव के प्रेमपात्र थे / प्रद्युम्न, प्रदीप, सांब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुख, सारण, गजसुकुमाल, सुमुख और दुर्मुख आदि यादवों के साढ़े तीन कोटि कुमारों के हृदय के प्रिय थे और उनके द्वारा प्रशंसनीय थे। कलह (वाग्युद्ध) युद्ध (शस्त्रों का समर) और कोलाहल उन्हें प्रिय था / वे भांड के समान वचन बोलने के अभिलाषी थे / अनेक समर और सम्पराय (युद्धविशेष) देखने के रसिया थे। चारों ओर दक्षिणा देकर (दान देकर) भी कलह की खोज किया करते थे, अर्थात् कलह कराने में उन्हें बड़ा आनन्द आता था / कलह कराकर दूसरों के For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org.