Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 460 } [ ज्ञाताधर्मकथा नस्कार करके वह हाथी के स्कंध पर आरूढ हुए / आरूढ होकर जल्दी-जल्दी जहाँ वेलाकल (लवणसमुद्र का किनारा) था, वहाँ आये। वहाँ आकर लवणसमुद्र के मध्य में होकर जाते हुए कृष्ण वासुदेव की श्वेत-पीत ध्वजा का अग्रभाग देखा / देखकर कहने लगे-'यह मेरे समान पुरुष हैं, यह पुरुषोत्तम कृष्ण वासुदेव हैं, लवणसमुद्र के मध्य में होकर जा रहे हैं। ऐसा कहकर कपिल वासुदेव ने अपना पाञ्चजन्य शंख हाथ में लिया और उसे अपनी मुख की वायु से पूरित किया-फूका। २००--तए णं से कण्हे वासुदेवे कविलस्स वासुदेवस्स संखसई आयन्नेइ, आयन्नित्ता पंचयन्नं जाव पूरियं करेइ / तए णं दो वि वासुदेवा संखसद्दसामायारि करेंति / तब कृष्ण वासुदेव ने कपिल वासुदेव के शंख का शब्द सुना / सुनकर उन्होंने भी अपने पाञ्चजन्य को यावत् मुख की वायु से पूरित किया / उस समय दोनों वासुदेवों ने शंख की समाचारी की, अर्थात् शंख के शब्द द्वारा मिलाप किया / २०१-~-तए णं से कविले वासुदेवे जेणेव अमरकंका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अमरकंक रायहाणि संभम्गतोरणं जाव' पासइ, पासित्ता पउमणाभं एवं वयासी-'किण्णं देवाणुप्पिया ! एसा अमरकंका रायहाणी संभग्ग जाव' सन्निवइया ?' तत्पश्चात् कपिल वासुदेव जहाँ अमरकंका राजधानी थी, वहाँ आए / आकर उन्होंने देखा कि अमरकंका के तोरण आदि टूट-फूट गये हैं। यह देखकर उन्होंने पद्मनाभ से पूछा--'देवानुप्रिय ! अमरकंका के तोरण आदि भग्न होकर क्यों पड़ गए हैं।' २०२-तए णं से पउमनाभे कविलं वासुदेवं एवं वयासी-एवं खलु सामी ! जंबुद्दोवाओ दीवाओ भारहाओ वासाओ इहं हव्वमागम्म कण्हेणं वासुदेवेणं तुब्भे परिभूय अमरकंका जाव: सन्निवाइया।' तव पद्मनाभ ने कपिल वासुदेव से इस प्रकार कहा-'स्वामिन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप से, भारतवर्ष से. यहाँ एकदम आकर कृष्ण वासुदेव ने, आपका पराभव करके, आपका अपमान करके, अमरकंका को यावत् गिरा दिया है ---अर्थात् इस भग्नावस्था में पहुँचा दिया है।' श्रीकृष्ण का लौटना : पांडवों की शरारत २०३–तए णं से कविले वासुदेवे पउमणाहस्स अंतिए एयमढं सोच्चा पउमणाहं एवं वयासी-'हं भो पउमणाभा ! अपत्थियपत्थिया! किं णं तुम न जाणसि मम सरिसपुरिसस्स कण्हस्स वासुदेवस्स विप्पियं करेमाणे ?' आसुरुत्ते जाव [ रुठे कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडि निडाले साहटु ] पउमणाहं णिदिवसयं आणवेइ, पउमणाहस्स पुतं अमरकंकारायहाणीए महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ, जाव पडिगए। तत्पश्चात् कपिल वासुदेव, पद्मनाभ से उत्तर सुनकर पद्मनाम से बोले-'अरे पद्मनाभ ! अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले ! क्या तू नहीं जानता कि तू ने मेरे समान पुरुष कृष्ण वासुदेव का 1..2. अ. 16 सूत्र 201. 3. अ. 16 सूत्र 202. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org