Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सोलहवाँ अध्ययन : द्रौपदी] [465 तब कृष्ण वासुदेव ने कुन्ती देवी से कहा-'पितृभगिनी ! उत्तम पुरुष अर्थात् वासुदेव, बलदेव और चक्रवर्ती अपूतिवचन होते हैं-उनके वचन मिथ्या नहीं होते। (वे कहकर बदलते नहीं हैं, अतः मैं देशनिर्वासन की प्राज्ञा वापिस लेने में असमर्थ हूँ)। देवानुप्रिये ! पांचों पाण्डव दक्षिण दिशा के बेलातट (समुद्र किनारे) जाएँ, वहाँ पाण्डु-मथुरा नामक नयी नगरी बसायें और मेरे अदृष्ट सेवक होकर रहें अर्थात् मेरे सामने न आएँ / इस प्रकार कहकर उन्होंने कुन्ती देवी का सत्कारसम्मान किया, यावत् [ सत्कार-सन्मान करके | उन्हें विदा दी। २१५---तए णं सा कोंती देवी जाव पंडुस्स एयमढ़ णिवेदेइ / तए णं पंडू राया पंच पंडवे सहावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासो--'गच्छह गं तुब्भे पुत्ता ! दाहिणिल्लं वेयालि, तत्थ गं तुझे पंडुमहुरं णिवेसेह।' तए णं पंच पंडवा पंडुरस रणो जाय [एयमठ्ठ] तह त्ति पडिसुणेति, पडिसुणित्ता सबलवाहणा हयगय हथिणाउराओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दक्खिणिल्ले वेयाली तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पंडुमहुरं नरं निवेसंति, निवेसित्ता तत्थ णं ते विपुलभोगसमितिसमण्णागया यावि होत्था। तत्पश्चात् कुन्ती देवी ने द्वारवती नगरी से पाकर पाण्डु राजा को यह अर्थ (वत्तान्त) निवेदन किया / तब पाण्डु राजा ने पांचों पाण्डवों को बुला कर कहा-'पुत्रो ! तुम दक्षिणी वेलातट (समुद्र के किनारे) जागो वहाँ पाण्डुमथुरा नगरी बसा कर रहो।' तब पांचों पाण्डवों ने पाण्डु राजा को यह बात 'तथास्तु-ठीक है' कह कर स्वीकार की। स्वीकार करके बल और वाहनों के साथ घोड़े और हाथी आदि की चतुरंगिणी सेना तथा अनेक भटों को साथ लेकर हस्तिनापुर से बाहर निकले। निकल कर दक्षिणी वेलातट पर पहुँचे / पाण्डुमथुरा नगरी की स्थापना की। नगरी की स्थापना करके वे वहाँ विपुल भोगों के समूह से युक्त हो गये-सुखपूर्वक निवास करने लगे। पाण्डुसेन का जन्म २१६-तए णं सा दोवई देवी अन्नया कयाइ आवण्णसता जाया यावि होत्था / तए णं दोवई देवी णवण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं जाव सुरूवं दारगं पयाया सूमालं, कोमलयं गयतालुयसमाणं, णिवत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं गोणं गुणनिष्फण्णं नामधेज्जं करेंति जम्हा गं अम्हं एस दारए पंचण्हं पंडवाणं पुत्ते दोवईए देवीए अत्तए, तं होउ अम्हं इमस्स दारगस्स णामधेज्ज 'पंडुसेणे'। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेज्जं करेंति पंडुसेण त्ति / तत्पश्चात् एक बार किसी समय द्रौपदी देवी गर्भवती हुई / फिर द्रौपदी देवी ने नौ मास यावत् सम्पूर्ण होने पर सुन्दर रूप वाले और सुकुमार तथा हाथी के तालु के समान कोमल बालक को जन्म दिया। बारह दिन व्यतीत होने पर बालक के माता-पिता को ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि-क्योंकि हमारा यह बालक पाँच पाण्डवों का पुत्र है और द्रौपदी देवी का पात्मज है, अतः इस बालक का नाम 'पाण्डुसेन' होना चाहिए / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ने उसका 'पाण्डुसेन' नाम रखा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org