Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 470] [ ज्ञाताधर्मकथा गहियं भत्तपाणं एगते परिद्वयंति, परिद्ववित्ता जेणेव सेत्तुजे पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता सेत्तुजं पन्चयं दुरूहंति, दुरूहित्ता जाव कालं अणवकंखमाणा विहरति / हे देवानुप्रिय ! (हम आपकी अनुमति लेकर भिक्षा के लिए नगर में गये थे। वहाँ हमने सुना है कि तीर्थंकर अरिष्टनेमि) यावत् कालधर्म को प्राप्त हुए हैं / अत: हे देवानुप्रिय ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि भगवान् के निर्वाण का वृत्तान्त सुनने से पहले ग्रहण किये हुए आहारपानी को परठ कर धीरे-धीरे शत्रु जय पर्वत पर आरूढ हों तथा संलेखना करके झोषणा (कमशोषण की क्रिया) का सेवन करके और मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरें-रहें, इस प्रकार कह कर सबने परस्पर के इस अर्थ (विचार) को अंगीकार किया। अंगीकार करके वह पहले ग्रहण किया आहार-पानी एक जगह परठ दिया। परठ कर जहाँ शत्रुजय पर्वत था, वहाँ गए / शत्रुजय पर्वत पर आरूढ हुए / आरूढ होकर यावत् मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे / पाण्डवों का निर्वाण २२७-तए णं ते जुहिटिलपामोक्खा पंच अणगारा सामाइयमाइयाइं चोइस पुव्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामण्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता जस्सट्टाए कोरइ णग्गभावे जाव' तमझें आराहेति / आराहित्ता अणते जाव केवलवरनाणदसणे समुप्पाडेता जाव सिद्धा। तत्पश्चात् उन युधिष्ठिर आदि पांचों अनगारों ने सामायिक से लेकर चौदह पूर्वो का अभ्यास करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, दो मास की संलेखना से प्रात्मा को झोषण करके, जिस प्रयोजन के लिए नग्नता, मुडता आदि अंगीकार की जाती है, उस प्रयोजन को सिद्ध किया। उन्हें अनन्त यावत् श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुआ। यावत् वे सिद्ध हो गये / आर्या द्रौपदी का स्वर्गवास २२८-तए णं सा दोवई अज्जा सुब्बयाणं अज्जियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्करस्स अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामग्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए आलोइयपडिक्कता कालमासे कालं किच्चा बंभलोए उववन्ना / दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् द्रौपदी आर्या ने सुव्रता प्रार्या के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / अध्ययन करके बहुत वर्षों तक श्रामण्यपर्याय का पालन किया / अन्त में एक मास की संलेखना करके, आलोचना और प्रतिक्रमण करके तथा कालमास में काल करके (यथासमय निधन को प्राप्त होकर) ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग में जन्म लिया। २२९-तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता / तत्थ णं दोवइस्स' देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता। ब्रह्मलोक नामक पांचवें देवलोक में कितनेक देवों की दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। उनमें द्रौपदी (द्रुपद) देव की भी दस सागरोपम की स्थिति कही गई है। 1. प्रोववाइय सूत्र 154. 2. पाठान्तर—'दुवयस्स / ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org