________________ 430 ] [ ज्ञाताधर्मकथा स्वयंवर : घोषणा / ११४–तए णं से दुवए राया पुब्वावरण्हकालसमयंसि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुमे देवाणुप्पिया! कंपिल्लपुरे संघाडग जाव पहेसु वासुदेवपामुक्खाण य रायसहस्साणं आवासेसु हथिखंधवरगया महया महया सद्देणं जाव उग्धोसेमाणा उम्घोसेमाणा एवं वदह--‘एवं खलु देवाणुप्पिया! कल्लं पाउप्पभायाए दुवयस्स रण्णो धूयाए, चुलगीए देवीए अत्तयाए, धट्ठजुष्णस्स भगिणीए दोवईए रायवरकण्णाए सयंवरे भविस्सइ, तं तुम्भे गं देवाणुप्पिया! दुवयं रायाणं अणुगिण्हेमाणा व्हाया जाव विभूसिया हथिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि वीइज्जमाणा हयगयरहपवरजोहकलियाए चउरंगिणीए सेणाए सद्धि संपरिवडा महया भडचडगरेणं जाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं नामंकेसु आसणेसु निसीयह, निसीइत्ता दोवई रायवरकण्णं पडिवालेमाणा पाडिवालेमाणा चिट्ठह त्ति घोसणं घोसेह, मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' तए णं कोडुबिया तहेव जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने पूर्वापराल काल (सायंकाल) के समय कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया / बुलाकर इस प्रकार कहा–'देवानुप्रियो ! तुम जानो और कांपिल्यपुर नगर के शृंगाटक आदि मार्गों में तथा वासुदेव आदि हजारों राजाओं के प्रावासों में, हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर, बुलंद आवाज से यावत् बार-बार उद्घोषणा करते हुए इस प्रकार कहो—'देवानुप्रियो ! कल प्रभात काल में द्रुपद राजा की पुत्री, चुलनी देवी की आत्मजा और धृष्टद्युम्न की भगिनी द्रौपदी राजवरकन्या का स्वयंवर होगा। अतएव हे देवानुप्रियो ! आप सब द्रुपद राजा पर अनुग्रह करते हुए, स्नान करके यावत विभूषित होकर, हाथी के स्कंध पर आरूढ होकर, कोरंट वक्ष की पुष्पमा को धारण करके, उत्तम श्वेत चामरों से विजाते हुए, घोड़ों, हाथियों, रथों तया बड़े-बड़े सुभटों के समूह से युक्त चतुरंगिणी सेना से परिवृत होकर जहाँ स्वयंवर मंडप है, वहाँ पहुँचें / वहाँ पहुँचकर अलग-अलग अपने नामांकित आसनों पर बैठे और राजवरकन्या द्रौपदी को प्रतीक्षा करें।' इस प्रकार की घोषणा करो और मेरी प्राज्ञा वापिस करो।' तब वे कौटुम्बिक पुरुष इस प्रकार घोषणा करके यावत् राजा द्रुपद की आज्ञा वापिस करते हैं। ११५--तए णं से दुवए राया कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सयंवरमंडवं आसियसंमज्जियोवलित्तं सुगंधवरगंधियं पंचवण्णपुप्फपुजोवयारकलियं कालागरु-पवर-कुदुरुक्क-तुरुक्क जाव' गंधट्टिभूयं मंचाइमंचकलियं करेह / करित्ता वासुदेवपामोक्खाणं बहूणं रायसहस्साणं पतेयं पत्तेयं नामंकियाई आसणाई अत्थय सेयवत्थ पच्चत्युयाई रएह, रयइत्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह / ' ते वि जाव पच्चप्पिणंति / तत्पश्चात् द्रुपद राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को पुनः बुलाया / बुलाकर कहा-'देवानुप्रियो ! तुम स्वयंवर-मंडप में जाओ और उसमें जल का छिड़काव करो, उसे झाड़ो, लीपो और श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्यों से सुगंधित करो। पाँच वर्ण के फलों के समह से व्याप्त करो। कृष्ण अगर, श्रेष्ठ कुदुरुक्क (चीड़ा) और तुरुष्क (लोभान) श्रादि की धूप से गंध की वर्ती (बाट) जैसा कर दो। उसे छत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org