________________ 410 ] [ ज्ञाताधर्मकथा ४७---तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे सागरस्स दारगस्स अम्मापियरो मिलणाइ [नियग-सयणसंबंधि-परियणं] विपुलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पुप्फवत्थ जाव [गंध-मल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता] संमाणेता पडिविसज्जेइ / / तए णं सागरए दारए सूमालियाए सद्धि जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियाए दारियाए सद्धि तलिगंसि निवज्जइ / तत्पश्चात सागरदत्त सार्थवाह ने सागरपुत्र के माता-पिता को तथा मित्रों, ज्ञातिजनों, प्रात्मीय जनों, स्वजनों, संबंधियों तथा परिजनों को विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन से तथा पुष्प, वस्त्र [गंध, माला, अलंकार से सत्कृत एवं] सम्मानित करके विदा किया। तत्पश्चात् सागरपुत्र सुकुमालिका के साथ जहाँ वासगृह (शयनागार) था, वहाँ पाया / आकर सुकुमालिका के साथ शय्या पर सोया---लेटा / ४८-तए णं से सागरए दारए सूमालियाए दारियाए इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, से जहानामए असिपत्ते इ वा जाव' अमणामयरागं चेव अंगफासं पच्चणुभवमाणे विहरइ / तए णं से सागरए दारए अंगफासं असहमाणे अवसवसे मुहुत्तमित्तं संचिट्ठइ। तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सूमालियाए दारियाए पासाओ उठेइ, उद्वित्ता जेणेव सए सणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणीयंसि निवज्जइ / उस समय सागरपुत्र ने सुकुमालिका के इस प्रकार के अंगस्पर्श को ऐसा अनुभव किया जैसे कोई तलवार हो, इत्यादि / वह अत्यन्त ही अमनोज्ञ अंगस्पर्श को अनुभव करता रहा। तत्पश्चात सागरपुत्र उस अंगस्पर्श को सहन न कर सकता हया, विवश होकर, महर्त्तमात्र-कुछ समय तकवहाँ रहा / फिर वह सागरपुत्र सुकुमालिका दारिका को सुखपूर्वक गाढ़ी नींद में सोई जानकर उसके पास से उठा और जहां अपनी शय्या थी, वहाँ आ गया। आकर अपनी शय्या पर सो गया। ४९-तए णं सूमालिया दारिया तओ मुहत्तरस्स पडिबुद्धा समाणी पइन्वया पइमारत्ता पति पासे अपस्समाणी तलिमाउ उठेइ, उद्वित्ता जेणेव से सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरस्स पासे णिवज्जइ। तदनन्तर सुकुमालिका पुत्री एक मुहूर्त में-थोड़ी देर में जाग उठी। वह पतिव्रता थी और पति में अनुराग वाली थी, अतएव पति को अपने पार्श्व-पास में न देखती हुई शय्या से उठ बैठी। उठकर वहाँ गई जहाँ उसके पति की शय्या थी / वहाँ पहुँच कर वह सागर के पास सो गई / पति द्वारा परित्याग ५०-तए णं सागरदारए सूमालियाए दारियाए दुच्चं पि इमं एयारूवं अंगफासं पडिसंवेदेइ, जाव अकामए अवसव्वसे मुहुत्तमित्तं संचिट्ठइ / तए णं से सागरदारए सूमालियं दारियं सुहपसुत्तं जाणित्ता सयणिज्जाओ उठेइ, उद्वित्ता 1. अ. 16 सूत्र 46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org