Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 412 [ ज्ञाताधर्मकथा दासी का प्रश्न सुन कर सुकुमालिका दारिका ने दासचेटी से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिये ! सागरदारक मुझे सुख से सोया जान कर मेरे पास से उठा और वासगृह का द्वार उघाड़ कर यावत् [व्याध से छुटकारा पाये काक की तरह] वापिस चला गया----भाग गया है। तदनन्तर मैं थोड़ी देर बाद उठी यावत् द्वार उघाड़ा देखा तो मैंने सोचा--सागर चला गया।' इसी कारण भग्नमनोरथ होकर मैं चिन्ता कर रही हूँ।' ५४–तए णं सा दासचेडी सूमालियाए दारियाए एयमझें सोच्चा जेणेव सागरदत्ते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमठें निवेएइ। दासचेटी सुकुमालिका दारिका के इस अर्थ (वृत्तान्त) को सुन कर वहाँ गई जहाँ सागरदत्त था। वहाँ जाकर उसने सागरदत्त सार्थवाह से यह वृत्तान्त निवेदन किया। ५५--तए णं से सागरदत्ते दासचेडीए अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म आसुरुत्ते जेणेव जिणदत्तसत्थवाहगिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता जिणवत्तं सत्थवाहं एवं वयासी.--'कि णं देवाणुप्पिया! एवं जुत्तं वा पत्तं वा कुलाणुरूवं वा कुलसरिसं वा, जं णं सागरदारए सूमालियं दारियं अदिट्ठदोसं पइत्वयं विप्पजहाय इहमागओ ?' बहूहि खिज्जणियाहि य रुटणियाहि य उवालभइ / दासचेटी से यह वृत्तान्त सुन-समझ कर सागरदत्त कुपित होकर जहाँ जिनदत्त सार्थवाह का घर था, वहाँ पहुँचा / पहुँचकर उसने जिनदत्त सार्थवाह से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रिय ! क्या यह योग्य है ? प्राप्त-उचित है ? यह कुल के अनुरूप और कुल के सदृश है कि सागरदारक सुकुमालिका दारिका को, जिसका कोई दोष नहीं देखा गया और जो पतिव्रता है, छोड़कर यहाँ आ गया है ?' यह कह कर बहुत-सी खेद युक्त क्रियाएं करके तथा रुदन की चेष्टाएँ करके उसने उलहना दिया / ५६--तए णं जिणदत्ते सागरदत्तस्स एयमह्र सोच्चा जेणेब सागरे दारए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सागरयं दारयं एवं वयासी-'दुठ्ठ णं पुत्ता! तुमे कयं सागरदत्तस्स गिहाओ इहं हव्वमागए / तं गच्छह णं तुमं पुत्ता! एवमवि गए सागरदत्तस्स गिहे / ' तब जिनदत्त, सागरदत्त के इस अर्थ को सुनकर जहाँ सागरदारक था, वहाँ पाया। ग्राकर सागर दारक से बोला- 'हे पुत्र ! तुमने बुरा किया जो सागरदत्त के घर से यहाँ एकदम चले आये। अतएव हे पुत्र ! जो हुआ सो हुअा, अब तुम सागरदत्त के घर चले जायो।' ५७-तए णं से सागरए जिणदत्तं एवं धयासी--- अवि याइं अहं ताओ ! गिरिपडणं वा तरुपडणं वा मरुष्पवायं वा जलप्पवेसं वा जलगप्पवेसंवा विसभक्खणं व वा सत्थोवाडणं वा गिद्धपिट्ठ वा पध्वज्ज वा बिदेसगमणं वा अन्भवच्छिज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्स गिहं गच्छिज्जा।' तब सागर पुत्र ने जिनदत्त से इस प्रकार कहा-'हे तात ! मुझे पर्वत से गिरना स्वीकार है, वृक्ष से गिरना स्वीकार है, मरुप्रदेश (रेगिस्तान) में पड़ना स्वीकार है, जल में डूब जाना, प्राग में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org