________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 417 दीक्षाग्रहण ६८-अज्जाओ तहेव भणंति, तहेव साविया जाया, तहेव चिता, तहेव सागरदत्तं सत्थवाहं आपुच्छइ, जाव गोवालियाणं अंतिए पब्वइया। तए गं सा सूमालिया अज्जा जाया ईरियासमिया जाव बंभयारिणी बहूहिं चउत्थछट्ठम जाब विहरइ। प्रार्यानों ने उसी प्रकार-सुव्रता की प्रार्याओं के समान-उत्तर दिया / अर्थात् उन्होंने कहा कि ऐसी बात सुनना भी हमें नहीं कल्पता तो फिर उपदेश करने- इष्ट होने का उपाय बताने की तो बात ही दूर रही / तब वह उसी प्रकार (पोट्टिला की भांति) श्राविका हो गई। उसने उसी प्रकार दीक्षा अंगीकार करने का विचार किया और उसी प्रकार सागरदत्त सार्थवाह से दीक्षा की आज्ञा ली। यावत् वह गोपालिका आर्या के निकट दीक्षित हुई। तत्पश्चात् वह सुकुमालिका आर्या हो गई। ईर्यासमिति से सम्पन्न यावत् ब्रह्मचारिणी हुई और बहुत-से उपवास, बेला, तेला आदि की तपस्या करती हुई विचरने लगी। ६९-तए णं सा सूमालिया अज्जा अन्नया कयाइ जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-'इच्छामि णं अज्जाओ! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाया सभाणी चंपाओ बहिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छठंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुही आयावेमाणी विहरित्तए।' / तत्पश्चात् सुकुमालिका आर्या किसी समय, एक बार गोपालिका आर्या के पास गई। जाकर उन्हें वन्दन किया, नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा-'हे आर्या (गुरुणीजी)! मैं आपकी आज्ञा पाकर चंपा नगरी से बाहर, सुभूमिभाग उद्यान से न बहुत दूर और न बहुत समीप के भाग में बेले-बेले का निरन्नर तप करके, सूर्य के सन्मुख अातापना लेती हुई विचरना चाहती हूँ।' ७०–तए णं ताओ गोवालियाओ अज्जाओ सूमालियं एवं क्यासी---'अम्हे णं अज्जे ! समणीओ निग्गंथीओ ईरियासमियाओ जाव गुत्तबंभचारिणीओ, नो खलु अम्हं कप्पइ बहिया गामस्स सन्निवेसस्स वा छठंछठेणं जाव [अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं सूराभिमुहीणं आयावेमाणीणं] विहरित्तए / कप्पइ णं अम्हं अंतो उवस्सयस्स वइपरिक्खित्तस्त संघाडिपडिबद्धियाए णं समतलपइयाए आयावित्तए।' __तब उन गोपालिका आर्या ने सुकुमालिका प्रार्या से इस प्रकार कहा—'हे आर्य ! हम निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ हैं, ईर्यासमिति वाली यावत् गुप्त ब्रह्मचारिणी हैं। अतएव हमको गांव यावत् सनिवेश (वस्ती) से बाहर जाकर बेले-वेले की तपस्या करके, सूर्याभिमुख होकर आतापना लेते हुए विचरना नहीं कल्पता। किन्तु वाड़ से घिरे हुए उपाश्रय के अन्दर ही, संघाटी (वस्त्र) से शरीर को प्राच्छादित करके या साध्वियों के परिवार के साथ रहकर तथा पृथ्वी पर दोनों पदतल समान रख कर आतापना लेना कल्पता है।' ७१-तए णं सा सूमालिया गोवालियाए अज्जाए एयमठं नो सद्दहइ, नो पत्तियइ, नो रोएइ, एयमढें असद्दहमाणी अपत्तियमाणी अरोएमाणी सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स अदूरसामंते छठेछट्टेणं जाव विहरइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org