Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ सोलहवां अध्ययन : द्रौपदी ] [ 411 वासघरस्स दारं विहाडेइ, विहाडित्ता मारामुक्के विव काए जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए। तत्पश्चात् सागरदारक ने दूसरी बार भी सुकुमालिका के पूर्वोक्त प्रकार के अंगस्पर्श को अनुभव किया / यावत् वह बिना इच्छा के विवश होकर थोड़ी देर तक वहाँ रहा। फिर सागरदारक सुकुमालिका को सुखपूर्वक सोई जान कर शय्या से उठा। उसने अपने वासगृह (शयनागार) का द्वार उघाड़ा / द्वार उधाड़ कर वह मरण से अथवा मारने वाले पुरुष से छुटकारा पाये काक पक्षी की तरह शीघ्रता के साथ जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया-अपने घर चला गया। ५१--तए णं सूमालिया दारिया तओ मुहुत्तंतरस्स पडिबुद्धा पइव्वया जाव' अपासमाणी सणिज्जाओ उठेइ, सागरस्स दारगस्स सवओ समंता मग्गणगवेसणं करेमाणी वासघरस्स दारं विहाडियं पासइ, पासित्ता एवं वयासी—'गए से सागरे' त्ति कटु ओहयमणसंकच्या जाव [करयलपल्हत्थमुही अट्टज्झाणोवगया] झियायइ। सुकुमालिका दारिका थोड़ी देर में जागी / वह पतिव्रता एवं पति में अनुरक्ता थी, अतः पति को अपने पास न देखती हुई शय्या से उठी। उसने सागरदारक की सब तरफ मार्गणा-गवेषणा की / गवेषणा करते-करते शयनागार का द्वार खुला देखा तो कहा (मन ही मन विचार किया)'सागर तो चल दिया !' उसके मन का संकल्प मारा गया, अतएव वह हथेली पर मुख रखकर प्रार्तध्यान-चिन्ता करने लगी। ५२--तए णं सा भद्दा सत्यवाही कल्लं पाउप्पभायाए दासचेडियं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी—'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिए ! बहुवरस्स मुहसोहणियं उवणेहि / ' तए णं सा दासचेडी भद्दाए एवं वुत्ता समाणी एयमठें तह त्ति पडिसुणेइ, मुहधोवणियं गेण्हित्ता जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सूमालियं दारियं जाव झियायमाणि पासइ, पासित्ता एवं वयासो-'कि णं तुमं देवाणुप्पिए ! ओहयमणसंकप्पा झियाहि ?' तत्पश्चात् भद्रा सार्थवाही ने कल (दूसरे दिन) प्रभात होने पर दासचेटी (दासी) को बुलाया और उससे कहा-'देवानुप्रिये ! तू जा और वर-वधू (वधू और वर) के लिए मुख-शोधनिका (दातौन-पानी) ले जा / ' तत्पश्चात् उस दासचेटी ने भद्रा सार्थवाही के इस प्रकार कहने पर इस अर्थ को 'बहुत अच्छा' कह कर अंगीकार किया। उसने मुखशोधनिका ग्रहण की। ग्रहण करके जहाँ वासगृह था, वहाँ पहुँची। वहाँ पहुँच कर सुकुमालिका दारिका को चिन्ता करती देख कर पूछा'देवानुप्रिये ! तुम भग्नमनोरथ होकर चिन्ता क्यों कर रही हो ?' ५३-तए णं सा सूमालिया दारिया तं दास.डि एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिए ! सागरए दारए मम सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाओ उठेइ, उद्वित्ता वासघरदुवारं अवंगुणेइ, जाव पडिगए / ततो अहं मुहुत्तंतरस्स जाव विहाडियं पासामि, गए से सागरए ति कटु ओहयमणसंकप्पा जाव झियायामि। 1. अ. 16 सूत्र 49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org