Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 394 ] [ ज्ञाताधर्मकथा अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्त, पकामं परिभाएउं, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! अन्नमन्नस्स गिहेसु कल्लाल्लि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेउं उवक्खडेउं परिभुजेमाणाणं विहरित्तए। किसी समय, एक बार एक साथ मिले हुए [साथ ही बैठे हुए उन तीनों ब्राह्मणों में इस प्रकार का समुल्लाप (वार्तालाप) हुा-'देवानुप्रियो ! हमारे पास यह प्रभूत धन यावत् [कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लाल आदि सारभूत] स्वापतेय-द्रव्य आदि विद्यमान है / सात पीढ़ियों तक खूब दिया जाय, खूब भोगा जाय और खूब बाँटा जाय तो भी पर्याप्त है / अतएव हे देवानुप्रियो ! हम लोगों का एक-दूसरे के घरों में प्रतिदिन बारी-बारी से विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम-यह चार प्रकार का प्राहार बनवा-बनवा कर एक साथ बैठ कर भोजन करना अच्छा रहेगा।' ५---अन्नमन्नस्स एयमलै पडिसुणेति, कल्लाकल्लि अन्नमन्नस्स गिहेसु विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडाति, उवक्खडावित्ता परिभुजेमाणा विहरंति / तीनों ब्राह्मणबन्धुनों ने आपस की यह बात स्वीकार की। वे प्रतिदिन एक-दूसरे के घरों में प्रचुर अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाने लगे और बनवा कर साथ-साथ भोजन करने लगे। नागश्री द्वारा कटु तुबे का शाक पकाना ६-तए णं तीसे नागसिरीए माहणीए अन्नया भोयणवारए जाए यावि होत्था। तए णं सा नागसिरी विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडेइ, उवक्खडित्ता एगं महं सालइयं तित्तालाउअं बहूसंभार-संजुत्तं जेहावगाढं उवक्खडेइ, एग बिदुयं करयलंसि आसाइए, तं खारं कडुयं अखज्ज अभोज्ज विसम्भूयं जाणित्ता एवं वयासी-'धिरत्थु णं मम नागसिरीए अहन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभर्गाणबोलियाए, जोए णं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावगाढे उवक्खडिए सुबहुदव्वक्खए नेहक्खए य कए। तत्पश्चात् एक बार नागश्री ब्राह्मणी के यहाँ भोजन की बारी आई / तब नागश्री ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन बनाया। भोजन बना कर एक बड़ा-सा शरद् ऋतु संबंधी अथवा सार (रस) युक्त तुबा (तुबे का शाक) बहुत-से मसाले डाल कर और तेल से व्याप्त (छौंक) कर तैयार किया। उस शाक में से एक बूद अपनी हथेली में लेकर चखा तो मालूम हुआ कि यह खारा, कड़वा, अखाद्य और विष जैसा है। यह जान कर वह मन ही मन कहने लगी-'मुझ अधन्या, पुण्यहीना, अभागिनी, भाग्यहीन, अत्यन्त अभागिनी-निबोली के समान अनादरणीय नागश्री को धिक्कार है, जिस (मैं) ने यह शरद् ऋतु संबंधी या रसदार तुबा बहुत-से मसालों से युक्त और तेल से छौंका हुआ तैयार किया। इसके लिए बहुत-सा द्रव्य बिगाड़ा और तेल का भी सत्यानाश किया। 1. 'सालइय' शब्द के टीकाकार ने दो संस्कृत रूप बतलाए हैं-'शारदिक' और 'सारचित' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org