________________ 400] [ ज्ञाताधर्मकथा तत्पश्चात् श्रमण निग्रंथों ने अपने गुरु का आदेश अंगीकार किया / अंगीकार करके वे धर्मघोष स्थविर के पास से बाहर निकले / बाहर निकल कर सब ओर धर्मरुचि अनगार की मार्गणा-~-गवेषणा करते हुए जहाँ स्थंडिलभूमि थी वहाँ आये। आकर देखा-धर्मरुचि अनगार का शरीर निष्प्राण, निश्चेष्ट और निर्जीव पड़ा है। उसे देख कर उनके मुख से सहसा निकल पड़ा-'हा हा ! अहो ! यह अकार्य हमा--बरा हवा!' इस प्रकार कह कर उन्होंने धर्मरुचि अनगार संबल कायोत्सर्ग किया और आचार-भांडक (पात्र) ग्रहण किये और धर्मघोष स्थविर के निकट पहुंचे। पहुंच कर गमनागमन का प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण करके बोले २१–एवं खलु अम्हे तुब्भं अंतियाओ पडिनिक्खमाणो पडिनिवखमित्ता सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स परिपेरंतेणं धम्मरुइस्स अणगारस्स सन्दओ समंता मग्गण-गवेसणं करेमाणा जेणेव थंडिल्ले तेणेव उवागच्छामो, उवागच्छित्ता जाव इह हव्वमागया / तं कालगए णं भंते ! धम्मरुई अणगारे, इमे से आयारभंडए। अापका आदेश पा करके हम आपके पास से निकले थे। निकल कर सुभूमिभाग उद्यान के चारों तरफ धर्मरुचि अनगार की यावत् सभी अोर मार्गणा--गवेषणा करते हुए स्थंडिल भूमि में गये / वहाँ जाकर यावत् जल्दी ही यहाँ लौट आए हैं / भगवन् ! धर्मरुचि अनगार कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं / यह उनके आचार-भांड हैं। (इस प्रकार वहाँ का समग्र वृत्तान्त निवेदन कर पात्र आदि उपकरण गुरु महाराज के सामने रख दिए।) २२-तए णं ते धम्मघोसा थेरा पुत्वगए उवओगं गच्छंति, गच्छित्ता समणे निग्गंथे निग्गंथीओ य सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु अज्जो! मम अंतेवासी धम्मरुई नाम अणगारे पगइभद्दए जाव [पगइउवसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोहे मिउमद्दवसंपण्णे अल्लीणे भद्दए] विणीए मासंमासेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे जाव नागसिरीए माहणीए गिहे अणुपविठे, तए णं सा नागसिरी माहणी जाव निसिरइ / तए णं से धम्मरुई अणगारे अहापज्जत्तमिति कटु जाव कालं अणवकखेमाणे विहरइ / तत्पश्चात् स्थविर धर्मघोष ने पूर्वश्रुत में उपयोग लगाया। उपयोग लगाकर (समग्र घटित घटना को जान लिया, तब) श्रमण निर्ग्रन्थों को और निर्ग्रन्थियों को बुलाकर उनसे कहा-'हे आर्यो ! निश्चय ही मेरा अन्तेवासी धर्मरुचि नामक अनगार स्वभाव से भद्र यावत् [स्वभाव से उपशान्त मंद क्रोध, मान, माया, लोभ वाला, मृदुता से सम्पन्न, आत्मभाव में लीन, भद्र और विनीत था। वह मासखमण की तपस्या कर रहा था। यावत् वह नागश्री ब्राह्मणी के घर पारणक-भिक्षा के लिया गया / तब नागश्री ब्राह्मणी ने उसके पात्र में सब का सब कटुक, विष-सदृश तुबे का शाक उंडेल दिया। तब धर्मरुचि अनगार अपने लिए पर्याप्त पाहार जानकर यावत् काल की आकांक्षा न करते हुए विचरने लगे। तात्पर्य यह कि स्थविर ने पिछला समग्र वृत्तान्त अपने शिष्यों को सुना दिया। देवपर्याय की प्राप्ति २३-से गं धम्मरुइ अणगारे बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org