________________ 402 ] [ ज्ञाताधर्मकथा जाव [रुवा कुविया चंडिक्किया] मिसिमिसेमाणा जेणेव नागसिरी माहणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता णागसिरि माहणि एवं वयासी 'हं भो नागसिरी ! अपत्थियपत्थिए दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसे थिरत्थु णं तव अधन्नाए अपुन्नाए दूभगाए दूभगसत्ताए दूभग-णिबोलियाए, जाए णं तुमे तहारूवे साहू साहुरूवे मासखमणपारणगंसि सालइएणं जाव ववरोविए।' उच्चावहिं अक्कोसणाहिं अक्कोसंति, उच्चावयाहिं उद्धसणाहिं उद्धंसेंति, उच्चावयाहि णिन्भत्थणाहि णिब्भत्थंति, उच्चावयाहि णिच्छोडणाहिं णिच्छोडेंति, तज्जेंति, तालेति, तज्जेत्ता तालेता सयाओ गिहाओ निच्छुभंति / तत्पश्चात् वे सोम, सोमदत्त और सोमभूति ब्राह्मण, चम्पानगरी में बहुत-से लोगों से यह वृत्तान्त सुनकर और समझकर, कुपित हुए यावत् [क्रोध से जल उठे, रुष्ट हुए, अतीव कुपित हुए, तीन क्रोध के वशीभूत हो गए और मिसमिसाने (जलने) लगे / वे वहीं जा पहुँचे जहाँ नागश्री थी। उन्होंने वहाँ जाकर नागश्री से इस प्रकार कहा 'परी नागश्री ! अप्राथित (मरण) की प्रर्थना करने वाली ! दुष्ट और अशुभ लक्षणों वाली ! निकृष्ट कृष्णा चतुर्दशी में जन्मी हुई ! अधन्य, अपुण्य, भाग्यहीने ! अभागिनी / अतीव 'दुर्भागिनी ! निंबोलो के समान कटुक ! तुझे धिक्कार है; जिसने तथारूप साधु और साधु रूप धारी को मासखमण के पारणक में शरद् संबंधी यावत् विषैला शाक बहरा कर मार डाला !" इस प्रकार कह कर उन ब्राह्मणों ने ऊँचे-नीचे आक्रोश (तू मर जा आदि) वचन कह कर आक्रोश किया अर्थात् गालियाँ दीं, ऊँचे-नीचे उद्धंसना वचन (तू नीच कुल की है, आदि) कह कर उद्धंसना की, ऊँचे-नीचे भर्त्सना वचन (निकल जा हमारे घर से आदि ) कहकर भर्त्सना की तथा -नीचे निश्छोटन वचन (हमारे गहने, कपड़े उतार दे, इत्यादि) कह कर निश्छोटना की, 'हे पापिनी तुझे पाप का फल भुगतना पड़ेगा' इत्यादि वचनों से तर्जना की और थप्पड़ आदि मार-मार कर ताड़ना की। इस प्रकार तर्जना और ताड़ना करके उसे घर से निकाल दिया। २८-तए णं सा नागसिरी सयाओ गिहाओ निच्छूढा समाणी चंपाए नयरीए सिंघाडग-तियचउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजणेणं होलिज्जमाणी खिसिज्जमाणी निदिज्जमाणी गरहिज्जमाणी तज्जिज्जमाणी पवहिज्जमाणी धिक्कारिज्जमाणी थुक्कारिज्जमाणी कत्थइ ठाणं वा निलयं वा अलभमाणी दंडीखंडनिवसना खंडमल्लग-खंडघडग-हत्थगया फुट्ट-हडाहड-सीसा मच्छियाचडगरेणं अन्निज्जमाणमग्गा गेहं गेहेणं देहं-बलियाए वित्ति कप्पेमाणी विहरइ। तत्पश्चात् वह नागश्री अपने घर से निकाली हुई चम्पानगरी में शृगाटकों (सिंघाड़े के आकार के मार्गों) में, त्रिक (तीन रास्ते जहाँ मिलते हों ऐसे मार्गों) में, चतुष्क (चौकों) में, चत्वरों (चबूतरों) तथा चतुर्मुख (चार द्वार वाले देवकुल आदि) में, बहुत जनों द्वारा अवहेलना की पात्र होती हुई, कुत्सा (बुराई) की जाती हुई, निन्दा और गर्दा की जाती हुई, उंगली दिखा-दिखा कर तर्जना की जाती हुई, डंडों आदि की मार से व्यथित की जाती हुई, धिक्कारी जाती हुई तथा थूकी जाती हुई न कहीं भी ठहरने का ठिकाना पा सकी और न कहीं रहने को स्थान पा सकी / टुकड़े-टुकड़े साँधे हई वस्त्र पहने, भोजन के लिए सिकोरे का टुकड़ा लिए, पानी पीने के लिए घड़े का टुकड़ा हाथ में लिए, मस्तक पर अत्यन्त बिखरे बालों को धारण किए, जिसके पीछे मक्खियों में झुड भिन-भिना रहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org