Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 375 तब तेतलिपुत्र कनकध्वज को अपने से विपरीत हुआ जानकर भयभीत हो गया / उसके हृदय में खूब भय उत्पन्न हो गया / वह इस प्रकार बोला—मन ही मन कहने लगा--'कनकध्वज राजा मुझसे रुष्ट हो गया है, कनकध्वज राजा मुझ पर हीन हो गया है, कनकध्वज राजा ने मेरा बुरा सोचा है / सो न मालूम यह मुझे किस बुरी मौत से मारेगा।' इस प्रकार विचार करके वह डर गया, त्रास को प्राप्त हुआ, घबराया और धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गया। खिसक कर उसी अश्व की पीठ पर सवार हुा / सवार होकर तेतलिपुर के मध्यभाग में होकर अपने घर की तरफ रवाना हुआ। ४७---तए णं तेयलिपुत्तं जे जहा ईसर जाव पासंति ते तहा नो आढायंति, नो परियाणंति, नो अब्भुट्ठति, नो अंजलिपरिग्गयं करेंति, इट्टाहिं जाव णो संलवंति, नो पुरओ य पिट्टओ य पासओ य मग्गओ य समणुगच्छंति / तए णं तेयलियुत्ते जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ / जा वि य से बाहिरिया परिसा भवइ, तंजहा-दासे इ वा, पेसे इ वा, भाइल्लए इ वा, सा वि य शं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुढेई / जा वि य से भितरिया परिसा भवइ, तंजहा-पिया इ वा माया इ वा जाव भाया इ वा भगिणी इ वा भज्जा इ वा पुत्ता इ वा धूया इ वा सुण्हा इ वा, सा वि य शं नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अन् द्रुइ। तत्पश्चात् तेतलिपुत्र को वे ईश्वर प्रादि देखते हैं, किन्तु वे पहले की तरह उसका आदर नहीं करते, उसे नहीं जानते, सामने नहीं खड़े होते, हाथ नहीं जोड़ते और इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर वाणी से बात नहीं करते / आगे, पीछे और अलग-बगल में उसके साथ नहीं चलते / तब तेतलिपुत्र जिधर अपना घर था, उधर पाया। घर आने पर बाहर की जो परिषद् होती है, जैसे कि दास, प्रेष्य (बाहर जाने-माने का काम करने वाले) तथा भागीदार आदि; उस बाहर की परिषद् ने भी उसका पादर नहीं किया, उसे नहीं जाना और न खड़ी हुई और जो आभ्यन्तर परिषद् होती है, जैसे कि माता, पिता, भाई, बहिन, पत्नी, पुत्र, पुत्रवधू आदि; उसने भी उसका आदर नहीं किया, उसे नहीं जाना और न उठ कर खड़ी हुई। आत्मघात का प्रयत्न ४८-तए णं से तेयलिपुत्ते जेणेव वासघरे, जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सयणिज्जंसि णिसीयइ, णिसीइत्ता एवं वयासी-'एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ निग्गच्छामि, तं चेव जाव अभितरिया परिसा नो आढाइ, नो परियाणाइ, नो अब्भुट्टेइ, तं सेयं खलु मम अप्पाणं जीवियाओ ववरोवित्तए, त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहिता तालउड विसं आसगंसि पक्खिवइ, से य विसे णो संकमइ। तए णं से तेयलिपुत्ते नीलुप्पल जाव गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगास खुरधारं असि खंघे ओहरइ, तत्थ वि य से धारा ओपल्ला। तए णं से तेथलिपुत्ते जेणेव असोगवणिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पासगं गोवाए बंधइ, बंधित्ता रुक्खं दुरूहइ, दुरूहित्ता पासं रुक्खे बंधइ, बंधित्ता अप्पाणं मुयइ, तत्थ वि य से रज्जू छिन्ना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org