________________ चौदहवां अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 371 करके पोट्टिला को स्नान कराया यावत् (सर्व अलंकारों से विभूषित किया) और हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिबिका पर आरूढ करा कर मित्रों तथा ज्ञातिजनों आदि से परिवृत होकर, समस्त ऋद्धि-लवाजमे के साथ, यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ तेतलिपुर के मध्य में होकर सुव्रता साध्वी के उपाश्रय में आया। वहाँ आकर सुव्रता आर्या को वन्दना की, नमस्कार किया / वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा 'देवानुप्रिये ! यह मेरी पोट्टिला भार्या मुझे इष्ट है / यह संसार के भय से उद्वेग को प्राप्त हुई है, यावत् (जन्म, जरा, मरण के दुःखों से भयभीत हुई है, अतः आपके निकट मुडित होकर गृहत्यागिन बनना चाहती है.-) दीक्षा अंगीकार करना चाहती है / सो देवानुप्रिये ! मैं आपको शिष्या रूप भिक्षा देता हूँ / इसे आप अंगीकार कीजिए।' आर्या ने कहा-'जैसे सुख उपजे वैसा करो; प्रतिबन्ध मत करो-विलम्ब न करो।' ३७–तए णं सा पोट्टिला सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-तुट्ठा उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए सयमेव आभरण-मल्लालंकारं ओमुयइ, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करित्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं बयासी'आलित्ते णं भंते ! लोए' एवं जहा देवाणंदा, जाव एक्कारस अंगाई, बहूणि वासाणि सामनपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणेणं छेइत्ता, आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ना। तत्पश्चात् सुव्रता आर्या के इस प्रकार कहने पर पोट्टिला हृष्ट-तुष्ट हुई / उसने उत्तरपूर्वईशान दिशा में जाकर अपने आप आभरण, माला और अलंकार उतार डाले / उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया। यह सब करके जहाँ सुब्रता प्रार्या थी, वहाँ आई / आकर उन्हें वन्दननमस्कार किया / वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा -'हे भगवती (पूज्ये) ! यह संसार चारों ओर से जल रहा है, इत्यादि भगवती सूत्र में कथित देवानन्दा की दीक्षा के समान वर्णन कह लेना चाहिए।' यावत् पोट्टिला ने दीक्षा अंगीकार करने के पश्चात् ग्यारह अंगों का अध्ययन किया / बहुत वर्षों तक चारित्र का पालन किया / पालन करके एक मास की संलेखना करके, अपने शरीर को कृश करके, साठ भक्त का अनशन करके, पापकर्म की आलोचना और प्रतिक्रमण करके, सम के अवसर पर काल करके वह किसी देवलोक में देवता के रूप में उत्पन्न हुई। ३८-तए णं से कणगरहे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्था। तए णं राईसर जाव [तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेगावइपभिइओ रोयमाणा कंदमाणा विलवमाणा तस्स कणगरहस्स सरीरस्स महया इड्डी-सक्कार-समुदएणं] णीहरणं करेंति, करित्ता अनमन्नं एवं वयासो---'एवं खलु देवाणुप्पिया ! कणगरहे राया रज्जे य जाव पुत्ते वियंगित्था, अम्हे णं देवाणुप्पिया ! रायाहीणा, रायाहिटिया, रायाहीणकज्जा, अयं च णं तेतली अमच्चे कणगरहस्स रण्णो सव्वट्ठाणेसु सव्वभूमियासु लद्धपच्चए दिन्नक्यिारे सव्वकज्जवड्ढावए यावि होत्था / तं सेयं खलु अम्हं तेलिपुत्तं अमच्चं कुमारं जाइत्तए' त्ति कटु अन्नमन्नस्स एयमझें पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव तेयलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता तेयलिपुत्तं एवं वयासी१. विस्तृत वर्णन के लिए देखिए, भगवतीसूत्र शतक 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org