Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 370] [ ज्ञाताधर्मकथा मए सुब्बयाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंते जाव से वि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए / तं इच्छामि णं तुब्भेहि अब्भणुन्नाया पव्वइत्तए।' तदनन्तर एक बार किसी समय, मध्य रात्रि में जब वह कुटुम्ब के विषय में चिन्ता करती जाग रही थी, तब उसे इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ–'मैं पहले तेतलिपुत्र को इष्ट थी, अब अनिष्ट हो गई हूँ; यावत् दर्शन और परिभोग का तो कहना ही क्या है ? अतएव मेरे लिए सुव्रता आर्या के निकट दीक्षा ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है।' पोट्टिला ने ऐसा विचार किया। विचार करके दूसरे दिन प्रभात होने पर वह तेतलिपुत्र के पास गई। जाकर दोनों हाथ जोड़कर [ अंजलि करके और मस्तक पर आवर्त करके ] बोली-देवानुप्रिय ! मैंने सुव्रता आर्या से धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, अतीव इष्ट है और रुचिकर लगा है, अतः आपकी आज्ञा पाकर मैं प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। ३५-तए णं तेयलिपुत्ते पोट्टिलं एवं वयासी-'एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! मुडा पवइया समाणी कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववज्जिहिसि, तं जइ णं तुम देवाणुप्पिए ! ममं ताओ देवलोयाओ आगम्म केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहिहि, तो हं विसज्जेमि, अह णं तुमं ममं णं संबोहेसि तो ते ण विसज्जेमि।' तए णं सा पोट्टिला तेयलिपुत्तस्स एयमढें पडिसुणेइ / तब तेतलिपुत्र ने पोट्टिला से इस प्रकार कहा-'देवानुप्रिये ! तुम मुडित और प्रवजित होकर मृत्यु के समय काल करके किसी भी देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होयोगी, सो यदि देवानुप्रिये ! तुम उस देवलोक से आकर मुझे केवलिप्ररूपित धर्म का प्रतिबोध प्रदान करो तो मैं तुम्हें अाज्ञा देता हूँ। अगर तुम मुझे प्रतिबोध न दो तो मैं आज्ञा नहीं देता।' तब पोट्टिला ने तेतलिपुत्र का अर्थ कथन स्वीकार कर लिया। ३६-तए णं तेयलिपुत्ते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेइ, उवक्खडावित्ता मित्तणाइ जाव आमंतेइ, आमंतित्ता जाव संमाणेइ, संमाणित्ता पोट्टिलं हायं जाव [सव्वालंकारविभूसियं] पुरिसहस्सवाहणीयं सीयं दुरुहिता मित्तणाइ जाव परिवडे सव्विड्ढोए जाव रवेणं तेतलिपुरस्स मज्झमज्झेणं जेणेव सुव्वयाणं उवस्सए तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता सोयाओ पच्चोरुहइ, पच्चीरुहित्ता पोट्टिलं पुरओ कटु जेणेव सुव्वया अज्जा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी 'एवं खलु देवाणुप्पिए ! मम पोट्टिला भारिया इट्ठा, एस णं संसारभउश्विग्गा जाव [भीया जम्मण-जर-मरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं] पव्वइत्तए / पडिच्छंतु गं देवाणुप्पिए ! सिस्सिणिभिक्खं दलयामि / ' 'अहासुहं मा पडिबंधं करेह / ' तत्पश्चात् तेतलिपुत्र ने विपुल अशन पान खादिम और स्वादिम पाहार बनवाया। मित्रों, ज्ञातिजनों आदि को आमंत्रित किया / उनका यथोचित सत्कार-सम्मान किया / सत्कार-सम्मान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org