Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 346 ] [ ज्ञाताधर्मकथा विशेषतः आधुनिक काल में अध्यात्म के नाम पर धर्म की सीमाओं को अत्यन्त संकुचित बनाया जा रहा है, धर्म का सम्बन्ध सिर्फ आत्मार्थ (स्वार्थ) के साथ जोड़ा जा रहा है, जनसेवा, दया, दान, परोपकार आदि को धर्म की सीमा से बाहर रखा जाता है, यह दृष्टिकोण अनेकान्तमय जैनधर्म के अनुकूल नहीं है। नंद की प्रशंसा २०-तए णं णंदाए पोक्खरिणीए बहुजणो व्हायमाणो य, पीयमाणो य, पाणियं च संवहमाणो य अन्नमन्नं एवं क्यासी-'धण्णे णं देवाणुप्पिया! णंदे मणियारसेट्री, कयत्थे जावणं देवाणुप्पिया ! नंदे मणियारसेट्टी, कयलक्खणे णं देवाणुप्पिया नंदे मणियारसेट्टी, कयपुण्णे णं देवाणुप्पिया नंदे मणियारसेट्ठी, कया णं लोया, सुलद्धे माणुस्सए] जम्मजीवियफले, जस्स णं इमेयारूवा गंदा पोक्खरिणी चाउकोणा जाव पडिरूवा, जस्स णं पुरस्थिमिल्ले तं चेव सव्वं, चउसु वि वणसंडेसु जाव रायगिहविणिग्गओ जत्थ बहुजणो आसणेसु य सयणेसु य सन्निसन्नो य संतुयट्टो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहंसुहेणं विहरइ, तं धन्ने कयत्थे कयपुग्ने, कया णं लोया ! सुलद्धे माणुस्सए जम्मजोवियफले नंदस्स मणियारस्स।' तए णं रायगिहे संघाडग जाव' बहुजणो अन्नमन्नस्स एयमाइक्खइ---धण्णे णं देवाणुप्पिया ! गंदे मणियारे सो चेव गमओ जाव सुहंसुहेण विहरइ / तए णं गंदे मणियारे बहुजणस्स अंतिए एयमलैं सोच्चा हट्टतुठे धाराहयकलंबग पिव समूससियरोमकूवे परं सायासोक्खमणुभवमाणे विहरइ। तत्पश्चात् नंदा पुष्करिणी में स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भर कर ले जाते हुए बहुत-से लोग आपस में इस प्रकार कहते थे-'हे देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार सेठ धन्य है, [नंद मणिकार सेठ कृतार्थ है, नंद मणिकार सेठ कृतलक्षण है, नंद मणिकार ने इह-परलोक सफल कर लिया है।] उसका जन्म और जीवन सफल है, जिसकी इस प्रकार की चौकोर यावत् मनोहर यह नंदा पुष्करिणी है; जिसकी पूर्व दिशा में वनखण्ड है-इत्यादि पूर्वोक्त चारों वनखण्डों और उनमें बनी हुई चारों शालाओं का वर्णन यहाँ कहना चाहिए। यावत् राजगृह नगर से भी बाहर निकल कर बहुत-से लोग आसनों पर बैठते हैं, शयनीयों पर लेटते हैं, नाटक आदि देखते हैं और कथा-वार्ता कहते हैं और सुख-पूर्वक विहार करते हैं। अतएव नन्द मणि कार का मनुष्यभव सुलब्ध-सराहनीय है और उसका जीवन तथा जन्म भी सुलब्ध है।' उस समय राजगृह नगर में भी शृगाटक आदि मार्गों में अर्थात् गली-गली में बहुतेरे लोग परस्पर इस प्रकार कहते थे-देवानुप्रिय ! नंद मणिकार धन्य है, इत्यादि पूर्ववत् ही कहना चाहिए, यावत् जहाँ आकर लोग सुखपूर्वक विचरते हैं / तब नंद मणिकार बहुत-से लोगों से यह अर्थ (अपनी प्रशंसा की बातें) सुनकर हृष्ट-तुष्ट हुआ / मेघ की धारा से आहत कदम्बवृक्ष के समान उसके रोमकूप विकसित हो गये--उसकी कलीकली खिल उठी। वह साताजनित परम सुख का अनुभव करने लगा। 1. प्रथम अध्य. 77. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org