________________ तेरहवां अध्ययन : दर्दुरज्ञात ] [ 349 तए णं णंदे तेहिं सोलसेहि रोगायंकेहि अभिभूए समाणे नंदा-पोक्खरिणीए मुच्छिए तिरिक्खजोणिएहि निबद्धाउए, बद्धपएसिए अट्टदुहट्टवसट्टे कालमासे कालं किच्चा नंदाए पोक्खरिणीए ददुरीए कुच्छिसि ददुरत्ताए उववन्ने / / तत्पश्चात् बहुत-से वैद्य, वेद्यपुत्र, जानकार जानकारों के पुत्र, कुशल और कुशलपुत्र जब उन सोलह रोगों में से एक भी रोग को उपशान्त करने में समर्थ न हुए तो थक गये, खिन्न हुए, यावत् (अत्यन्त खिन्न हुए और उदास होकर जिधर से आए थे उधर ही) अपने-अपने घर लौट गये / नन्द मणिकार उन सोलह रोगातंकों से अभिभूत हुआ और नन्दा पुष्करिणी में अतीव मूच्छित हुया / इस कारण उसने तिर्यंचयोनि सम्बन्धी आयु का बन्ध किया, प्रदेशों का बन्ध किया। प्रातध्यान के वशीभूत होकर मृत्यु के समय में काल करके उसी नन्दा पुष्करिणी में एक मेंढकी की कूख में मेंढक के रूप में उत्पन्न हुआ। विवेचन-गुद्धि, आसक्ति, मोह या राग-इसे किसी भी शब्द से कहा जाय, आत्मा को मलीन बनाने एवं प्रात्मा के अधःपतन का एक प्रधान कारण है / नन्द मणिकार ने पुष्करिणी बनवाई, चार शालाएं स्थापित की। इनमें अर्थ का व्यय किया, अर्थ का व्यय करने पर भी वह यश-कीर्ति की कामना और पुष्करिणी सम्बन्धी आसक्ति का परित्याग न कर सका / कीर्ति-कामना से प्रेरित होकर ही उसने अपनी बनवाई पुष्करिणी का नाम अपने नाम पर ही 'नन्दा' रखा। इस महान् दुर्बलता के कारण उसका धन-त्याग एक प्रकार का व्यापार-धन्धा बन गया / त्यागे धन के बदले उसने कीर्ति उपाजित करना चाहा। यश-कीति सूनकर हषित होने लगा। अन्तिम समय में भी वह नन्दा पुष्करिणी में आसक्त रहा / इस प्रासक्तिभाव ने उसे ऊपर चढ़ने के बदले नीचे गिरा दिया। वह उसी पुष्करिणी में मण्डूक-पर्याय में उत्पन्न हुआ। मूल पाठ में 'निबद्धाउए' और 'बद्धपएसिए' इन दो पदों का प्रयोग हुआ है। टीकाकार के अनुसार दोनों पद चार प्रकार के बन्ध के सूचक हैं। 'बद्धाउए' पद से प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध सूचित किये गये हैं और 'बद्धपएसिए' पद से प्रदेशबन्ध का कथन किया गया है / २४–तए णं णंदे दद्दु रे गभाओ विणिम्मुक्के समाणे उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमित्ते जोव्वणगमणुपत्ते नंदाए पोखरिणीए अभिरममाणे अभिरममाणे विहरइ।। तत्पश्चात् नन्द मण्डूक गर्भ से बाहर निकला और अनुक्रम से बाल्यावस्था से मुक्त हुआ। उसका ज्ञान परिणत हुआ—बह समझदार हो गया और यौवनावस्था को प्राप्त हुया / तब नन्दा पुष्करिणी में रमण करता विचरने लगा। मेंढक को जातिस्मरणज्ञान २५--तए णं णंदाए पोक्खरिणीए बहू जणे व्हायमाणो य पियमाणो य पाणियं संवहमाणो य अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ- 'धन्ने णं देवाणुप्पिया! गंदे मणियारे जस्स णं इमेयारुवा गंदा पुक्खरिणी चाउक्कोणा जाव पडिरूवा, जस्स णं पुरथिमिल्ले वणसंडे चित्तसभा अणेगखंभसयसन्निविटा तहेव चत्तारि सहाओ जाव जम्मजीविअफले।' नन्दा पुष्करिणी में बहुत-से लोग स्नान करते हुए, पानी पीते हुए और पानी भर कर ले जाते हुए आपस में इस प्रकार कहते थे—'देवानुप्रिय ! नन्द मणिकार धन्य है, जिसकी यह चतुष्कोण यावत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org