Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 348 ] [ ज्ञाताधर्मकथा तेसि रोगायंकाणं नियाणं पुच्छंति, णंदस्स मणियारसेटिस्स बहूहि उव्वलणेहि य उन्धटणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणेहि य अवदहणेहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणेहि य वस्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि य सिरावेढेहि य तप्पणाहि य पुढ(ट) वाएहि य छल्लीहि य वल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य पत्तेहि य पुप्फेहि य फलेहि य बीएहि य सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए / नो चेव णं संचाएंति उवसामेत्तए / राजगृहनगर में इस प्रकार की घोषणा सुनकर और हृदय में धारण करके वैद्य, वैद्यपुत्र, यावत् कुशलपुत्र हाथ में शस्त्रकोश (शस्त्रों की पेटी) लेकर, शिलिका (शस्त्रों को तीखा करने का पाषाण) हाथ में लेकर, गोलियाँ हाथ में लेकर और औषध तथा भेषज हाथ में लेकर अपने-अपने घरों से निकले / निकल कर राजगृह के बीचोंबीच होकर नंद मणिकार के घर पाए / उन्होंने नन्द मणिकार के शरीर को देखा और नन्द मणिकार से रोग उत्पन्न होने का कारण पूछा / फिर उबलन (एक विशेष प्रकार के लेप) द्वारा, उद्वर्तन (उवटन जैसे लेप) द्वारा, स्नेह पान [औषधियाँ डाल कर पकाये हुए घी-तेल आदि) द्वारा, वमन द्वारा, विरेचन द्वारा, स्वेदन से (पसीना निकाल कर), अबदहन से (डाम लगा कर). अपस्नान (जल में चिकनापन दूर करने वाली वस्तुएँ मिलाकर किये हुए स्नान) से, अनुवासना से (गुदामार्ग से चमड़े के यंत्र द्वारा उदर में तेल आदि पहुँचा कर). वस्तिकर्म से (गुदा में बत्ती आदि डाल कर भीतरी सफाई करके), निरुह द्वारा (चर्मयंत्र का प्रयोग करके, अनुवासना की तरह गुदामार्ग से पेट में कोई वस्तु पहुँचा कर), शिरावेध से (नस काट कर रक्त निकालकर या रक्त ऊपर से डाल कर), तक्षण से (छुरा आदि से चमड़ी आदि छील कर), प्रक्षण (थोड़ी चमड़ी काटने) से, शिरावेध से (मस्तक पर बांधे चमड़े पर पकाए हुए तेल आदि के सिंचन से), तर्पण (स्निग्ध पदार्थों के चुपड़ने) से, पुटपाक (आग में पकाई औषधों) से, पत्तों से, रोहिणी आदि की छालों से, गिलोय आदि वेलों से, मूलों से, कंदों से, पूष्पों से, फलों शिलिका (घास विशेष) से, गोलियों से, औषधों से, भेषजों से (अनेक औषधे मिला कर तैयार की हई दवाओं) से, उन सोलह रोगातंकों में से एक-एक रोगातंक को उन्होंने शान्त करना चाहा, परन्तु वे एक भी रोगातंक को शान्त करने में समर्थ न हो सके / विवेचन-प्राचीन काल में आयुर्वेद-चिकित्सा पद्धति कितनी विकसित थी, चिकित्सा के कितने रूप प्रचलित थे, यह तथ्य प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट विदित किया जा सकता है। आयुर्वेद का इतिहास लिखने में यह उल्लेख अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है। आधुनिक एलोपैथी के लगभग सभी रूप इसमें समाहित हो जाते हैं, यही नहीं बल्कि अनेक रूप तो ऐसे भी हैं जो आधुनिक पद्धति में भी नहीं पाये जाते / इससे स्पष्ट है कि आधुनिक यन्त्रों के अभाव में भी आयुर्वेद खूब विकसित हो चुका था। नन्द मणिकार की मृत्यु : पुनर्जन्म २३-तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणुया य जाणुयपुत्ता य कुसला य कुसलपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामेत्तए ताहे संता तंता जाव परितंता निश्चिण्णा समाणा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org