________________ चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र ] [ 367 २८-तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ नाम अज्जाओ ईरियासमियाओ जाव [भासासमियाओ एसणासमियाओ आयाण-भंड-मत्त-णिक्खेवण-समियाओ उच्चार-पासवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-पारिछावण-समियाओ मणसमियाओ, वइसमियाओ कायसमियाओ, मणगुत्ताओ वइगुत्ताओ कायगुत्ताओ, गुत्ताओ गुत्तिदियाओ] गुत्तबंभयारिणीओ बहुस्सुयाओ बहुपरिवाराओ पुवाणुपुटिव चरमाणीओ जेणामेव तेयलिपुरे नयरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणीओ विहरंति / ___ उस काल और उस समय में ईर्या-समिति से युक्त यावत् [भाषासमिति, एषणासमिति आदान-भांड-मात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवण-खेल-सिंघाण-जल्ल-परिष्ठापनसमिति से युक्त, मनसमिति, वचनसमिति, कायसमिति से सम्पन्न, मनोगुप्ति वचनगुप्ति और कायगुप्ति से युक्त, गुप्त तथा इन्द्रियों का गोपन करने वाली] गुप्त ब्रह्मचारिणी, बहुश्रुत, बहुत परिवार वाली सुव्रता नामक प्रार्या अनुक्रम से विहार करती-करती तेतलिपुर नगर में आई / आकर यथोचित उपाश्रय ग्रहण करके संयम और तप से आत्मा को भावित करती हुई विचरने लगीं। २९-तए णं तासि सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ जाव अडमाणीओ तेयलिपुत्तस्स गिहं अणुपविट्ठाओ। तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ, पासित्ता हट्ठतुट्ठा आसणाओ अब्भट्टेइ, अब्भुद्वित्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभेइ, पडिलाभित्ता एवं वयासी---- तत्पश्चात् उन सुव्रता आर्या के एक संघाड़े के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया और दूसरे प्रहर में ध्यान किया। तीसरे प्रहर में भिक्षा के लिए यावत् अटन करती हुई वे साध्वियाँ तेतलिपुत्र के घर में प्रविष्ट हुईं पोट्टिला उन आर्याओं को प्राती देखकर हृष्ट-तुष्ट हुई, अपने आसन से उठ खड़ी हुई, वंदना की, नमस्कार किया और विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य-आहार वहराया। आहार वहरा कर उसने कहा विवेचन-प्रस्तुत सूत्र के 'पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ' के पश्चात् 'जाव' शब्द से विस्तृत पाठ का संकेत दिया गया है, जिसमें साधु-साध्वी के देवसिक कार्यक्रम के कुछ अंश का उल्लेख है, साथ ही भिक्षा संबंधी विधि का भी उल्लेख किया गया है / उस पाठ का प्राशय इस प्रकार है'साध्वियों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, द्वितीय प्रहर में ध्यान किया, तीसरा प्रहर प्रारंभ होने पर शीघ्रता, चपलता और संभ्रम के बिना अर्थात् जल्दी से गोचरी के लिए जाने की उत्कंठा न रखकर निश्चिन्त और सावधान भाव से मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों को प्रतिलेखना की, पात्रों का प्रमार्जन किया तत्पश्चात् पात्र ग्रहण करके अपनी प्रवत्तिका सुव्रता साध्वी के निकट गईं। उन्हें वन्दन- नमस्कार किया और भिक्षाचर्या के लिए तेतलिपुर नगर के उच्च, नीच एवं मध्यम घरों में जाने की आज्ञा मांगी। सुव्रता साध्वी ने उन्हें भिक्षा के लिए जाने की अनुमति दे दी। तत्पश्चात् वे प्रायिकाएँ उपाश्रय से बाहर निकलीं। धीमी, अचंचल और असंभ्रान्त गति से गमन करती हुई चार हाथ सामने की भूमि-मार्ग पर दृष्टि रक्खे हुए—ईर्यासमिति से नगर में श्रीमन्तों, गरीबों तथा मध्यम परिवारों में भिक्षा के लिए अटन करने लगीं / अटन करती-करती वे तेतलिपुत्र के घर में पहुँची।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org