________________ बारहवां अध्ययन : उदक ] [ 333 यावत् भोग भोगते हुए ठहरो, उसके अनन्तर हम दोनों साथ-साथ स्थविर मुनियों के निकट मुडित होकर प्रव्रज्या अंगीकार करेंगे / २७–तए णं सुबुद्धी अमच्चे जियसत्तस्स रण्णो एयम पडिसुणेइ / तए णं तस्स जियसत्तस्स रन्नो सुबुद्धिणा सद्धि विपुलाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं पच्चणुब्भवमाणस्स दुवालस वासाई वीइक्कंताई। तेणं कालेणं तेणं समएणं थेरागमणं, तए णं जियसत्तू धम्म सोच्चा एवं जं नवरं देवाणुप्पिया ! सुबुद्धि आमंतेमि, जेट्टपुत्तं रज्जे ठवेमि, तए णं तुम्भं जाव पन्वयामि / 'अहासुहं देवाणुप्पिया !" __ तए णं जियसत्तू राया जेणेव सए गिहे (तेणेव) उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबुद्धि सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं बयासी-'एवं खलु मए थेराणं जाव पव्वज्जामि, तुमं णं कि करेसि?' तए णं सुबुद्धी जियसत्तु एवं बयासी—'जाव के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामि / ' तब सुद्धि अमात्य ने राजा जितशत्रु के इस अर्थ को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् सुबुद्धि प्रधान के साथ जितशत्रु राजा को मनुष्य संबंधी कामभोग भोगते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये। तत्पश्चात् उस काल और उस समय में स्थविर मुनि का आगमन हुआ। तब जितशत्रु ने धर्मोंपदेश सुन कर प्रतिबोध पाया, किन्तु उसने कहा—'देवानुप्रिय ! मैं सुबुद्धि अमात्य को दीक्षा के लिए आमंत्रित करता हूँ और ज्येष्ठ पुत्र को राजसिंहासन पर स्थापित करता हूँ। तदनन्तर आपके निकट दीक्षा अंगीकार करूगा।' तब स्थविर मुनि ने कहा-'देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख उपजे वही करो।' तब जितशत्रु राजा अपने घर पाया / आकर सुबुद्धि को बुलवाया और कहा-मैंने स्थविर भगवान् से धर्मोपदेश श्रवण किया है यावत् मैं प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा करता हूँ। तुम क्या करोगे-तुम्हारी क्या इच्छा है ? तब सूबुद्धि ने जितशत्रु से कहा---'यावत् अापके सिवाय मेरा दूसरा कौन आधार है ? यावत मैं भी संसार-भय से उद्विग्न हैं, मैं भी प्रव्रज्या अंगीकार करूंगा।' २८-तं जइ णं देवाणुप्पिया ! जाव पव्वयह, गच्छह णं देवाणुप्पिया! जेट्टपुत्तं च कुडबे ठावेहि, ठावेत्ता सीयं दुरूहित्ता णं ममं अंतिए जाव पाउन्भवेह / तए णं सुबुद्धी अमच्चे सीयं जाव पाउब्भवइ। तए णं जियसत्तू कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! अदीणसत्तुस्स कुमारस्स रायाभिसेयं उवट्ठवेह / ' जाव अभिसिंचंति, जाव पव्वइए। राजा जितशत्र ने कहा-देवानुप्रिय ! यदि तुम्हें प्रव्रज्या अंगीकार करनी है तो जाम्रो देवानुप्रिय ! और अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करो और शिविका पर प्रारूढ होकर मेरे समीप प्रकट होमो-यानो / तब सुबुद्धि अमात्य शिविका पर आरूढ होकर यावत् राजा के समीप आ गया। तत्पचात् जितशत्रु ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा--'जागो देवानुप्रियो ! अदीनशत्रु कुमार के राज्याभिषेक की सामग्री उपस्थित-तैयार करो।' कौटुम्बिक पुरुषों ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org