Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 340 [ ज्ञाताधर्मकथा बार मेघ और तूफान बहुत जोर के पाए तो सब लोग उसमें घुस गए और निर्भय हो गए / तात्पर्य यह है कि जैसे सब लोग उस शाला में समा गये, उसी प्रकार देव-ऋद्धि देव के शरीर में समा गई / ६-दृटुरेणं भंते ! देवेणं सा दिव्वा देविडो किण्णा लद्धा जाव [ किण्णा पत्ता ] अभिसमन्नागया ? गौतमस्वामी ने पुनः प्रश्न क्रिया-- भगवन् ! दर्दुरदेव ने वह दिव्य देव-ऋद्धि किस प्रकार लब्ध को, किस प्रकार प्राप्त की ? किस प्रकार वह उसके समक्ष प्राई ? दर्दुरदेव का पूर्ववृत्तान्त : नन्द मणिकार ७–'एवं खलु गोयमा ! इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे रायगिहे नाम नयरे होत्था, गुणसीलए चेइए, तस्स णं रायगिहस्स सेणिए नामं राया होत्था / तत्थ णं रायगिहे गंदे णामं मणियारसेट्ठी परिवसइ, अड्ढे दित्ते जाव' अपरिभूए।' भगवान् उत्तर देते हैं--'गौतम / इसी जम्बूद्वीप में, भरतक्षेत्र में, राजगृह नगर था / गुणशील चैत्य था। श्रेणिक राजगृह नगर का राजा था। उस राजगृह नगर में नन्द नामक मणिकार (मणियार) सेठ रहता था / वह समृद्ध था, तेजस्वी था और किसी से पराभूत होने वाला नहीं था।' नन्द को धर्मप्राप्ति 8- तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा समोसढे, परिसा निग्गया, सेणिए वि राया निग्गए। तए गंदे से गंदे मणियारसेट्ठी इमीसे कहाए लद्धठे समाणे हाए पायचारेणं जाव पज्जुवासइ, गंदे धम्म सोच्चा समणोवासए जाए / तए णं अहं रायगिहाओ पडिणिक्खंते बहिया जणवयविहारं विहरामि। हे गौतम ! उस काल और उस समय में मैं गुणशील उद्यान में पाया / परिषद् वन्दना करने के लिए निकली और श्रेणिक राजा भी निकला / तब नन्द मणियार सेठ इस कथा का अर्थ जान कर अर्थात् मेरे आगमन का वृत्तान्त ज्ञात कर स्नान करके विभूषित होकर पैदल चलता हा पाया, यावत् मेरी उपासना करने लगा। फिर वह नन्द धर्म सुनकर श्रमणोपासक हो गया अर्थात उसने श्रावकधर्म अंगीकार किया। तत्पश्चात् में राजगृह से बाहर निकल कर बाहर जनपदों में विचरण करने लगा। नन्द को मिथ्यात्वप्राप्ति ९--तए णं से गंदे मणियारसेट्ठी अन्नया कयाई असाहुदसणेण य अपज्जुवासणाए य अणणुसासणाए य असुस्सूसणाए य सम्मत्तपज्जवेहि परिहायमाणेहि परिहायमाणेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिवड्डमाहिं परिवठ्ठमाणेहि मिच्छत्तं विष्पडिवन्ने जाए यावि होत्था / तत्पश्चात् नन्द मणिकार श्रेष्ठी साधुओं का दर्शन न होने से, उनकी उपासना न करने से, उनका उपदेश न मिलने से और वीतराग के वचन सुनने की इच्छा न होने से क्रमश. सम्यक्त्व के पर्यायों की धोरे-धीरे हीनता होती चली जाने से और मिथ्यात्व के पर्यायों की क्रमशः वृद्धि होते रहने से, एक बार किसी समय मिथ्यात्वी हो गया। 1. अ. 5, सूत्र 6 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org