Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ ग्यारहवाँ अध्ययन : दावद्रव ] [ 317 9-- एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पच्वइए समाणे बहूणं अण्णउत्थियाणं, बहूणं गिहत्थाणं सम्मं सहइ, बहूणं समणाणं, बहूणं समणोणं, बहूणं सावयाणं, बहूणं सावियाणं नो सम्मं सहइ, एस णं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते / इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु अथवा साध्वी दीक्षित होकर बहुत-से अन्यतीथिकों के और बहुत-से गृहस्थों के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन करता है और बहुत-से साधुनों, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों तथा बहुत-सी श्राविकाओं के दुर्वचन सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता, उस पुरुष को मैंने देशाराधक कहा है। सविराधक--- १०-समणाउसो! जया णं नो दीविच्चगा णो सामुद्दगा ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव महावाया वायंति, तए णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा झोडा जाव मिलायमाणा मिलायमाणा चिट्ठति / आयुष्मन् श्रमणो ! जब द्वीप सम्बन्धी और समुद्र सम्बन्धी एक भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् महावात नहीं बहती, तब सब दावद्रव वृक्ष जीर्ण सरीखे हो जाते हैं, यावत् मुरझाए रहते हैं। ११-एवामेव समणाउसो ! जाव पव्वइए समाणे बहूर्ण समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं साबियाणं बहूर्ण अन्नउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं नो सम्मं सहइ, एस णं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते। इसी प्रकार हे आयुष्मन् श्रमणो ! जो हमारा साधु या साध्वी यावत् प्रवजित होकर बहुत-से साधुओं, बहुत-सी साध्वियों, बहुत-से श्रावकों, बहुत-सी श्राविकाओं, बहुत-से अन्यतीथिकों एवं बहुतसे गृहस्थों के दुर्वचन शब्दों को सम्यक प्रकार से सहन नहीं करता, उस पुरुष को मैंने सर्व विराधक कहा है। सर्वाराधक 12- समणाउसो ! जया णं दीविच्चगा वि सामुद्दगा वि ईसि पुरेवाया पच्छावाया जाव वायंति, तदा णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिट्ठति / जब द्वीप सम्बन्धी भी और समुद्र सम्बन्धी भी ईषत् पुरोवात, पथ्य या पश्चात् वात, यावत् बहतो है, तव सभी दावद्रव वृक्ष पत्रित, पुष्पित, फलित यावत् सुशोभित रहते हैं / १३--एवामेव समणाउसो ! जे अम्हं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बहूणं अन्नउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहइ, एस णं मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते समणाउसो! एवं खलु गोयमा ! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति / हे आयुष्मन् श्रमणो ! इसी प्रकार जो हमारा साधु या साध्वी बहुत-से श्रमणों के, बहुत-सी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org