________________ 330] [ ज्ञाताधर्मकथा प्रश्न हो सकता है कि जब सभी पदार्थ-द्रव्य परिणमनशील हैं तो यहां विशेष रूप से पुद्गलों का ही उल्लेख क्यों किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है-परिणमन तो सभी में होता है किन्तु अन्य द्रव्यों के परिणमन से पुद्गल के परिणमन में कुछ विशिष्टता है / पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों में संयोग-वियोग होता है, अर्थात् पुद्गल का एक स्कंध (पिंड) टूटकर दो भागों में विभक्त हो जाता है, दो पिण्ड मिलकर एक पिण्ड बन जाता है, पिण्ड में से एक परमाणु-उसका निरंश अंश पृथक् हो सकता है / वह कभी-कभी पिण्ड में मिलकर स्कंध रूप धारण कर सकता है / इस प्रकार पुद्गल द्रव्य के प्रदेशों में होनाधिकता, मिलना-बिछुड़ना होता रहता है। किन्तु पुद्गल के सिवाय शेष द्रव्यों में इस प्रकार का परिणमन नहीं होता। जीव, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के प्रदेशों में न न्यूनाधिकता होती है, न संयोग या वियोग होता है। उनके प्रदेश जितने हैं, उतने ही सदा काल अवस्थित रहते हैं। अन्य द्रव्यों के परिणमन से पूदगल के परिणमन की इसी विशिष्टता के कारण संभवतः यहाँ पुद्गलों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। दूसरा कारण यह हो सकता है कि प्रस्तुत में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श के संबंध में कथन किया गया है और ये चारों गुण केवल पुद्गल में ही होते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं। यहाँ एक तथ्य और ध्यान में रखने योग्य है / वह यह कि प्रत्येक द्रव्य का गुण भी द्रव्य की ही तरह नित्य-अविनाशी है, परन्तु उन गुणों के पर्याय, द्रव्य के पर्यायों की भाँति परिणमनशील हैं / वर्ण पुद्गल का गुण है / उसका कभी विनाश नहीं होता / काला, पीला, हरा, नीला और श्वेत, वर्ण-गुण के पर्याय है। इनमें परिवर्तन होता रहता है। गंध गुण स्थायी है, सुगन्ध और दुर्गन्ध उसके पर्याय हैं / अतएव गंध नित्य और उसके पर्याय अनित्य हैं। इसी प्रकार रस और स्पर्श के संबंध में समझ लेना चाहिए। परिणमन की यह धारा निरन्तर, क्षण-क्षण, पल-पल, प्रत्येक समय, प्रवाहित होती रहती है, सूक्ष्म परिणमन हमारी दृष्टि में नहीं आता / जब परिणमन स्थल होता है तभी हम उसे जान पाते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कोई शिशु पल-पल में वृद्धिंगत होता रहता है किन्तु उसकी वृद्धि का अनुभव हमें तभी होता है जब वह स्थूल रूप धारण करती है / सुबुद्धि प्रधान ने राजा जितशत्रु के समक्ष यही तत्त्व रक्खा / इस तत्त्व का प्रतिपादन जिनागम में हो किया गया है, अन्यत्र नहीं / जितशत्रु के पूछने पर सुबुद्धि ने यह बात भी स्पष्ट कर दी है। २२-तए णं जियसत्तू सुबुद्धि एवं बयासी-'इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! तव अंतिए जिणवयणं निसामेत्तए।' तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स विचित्तं केवलिपन्नतं चाउज्जामं धम्म परिकहेइ, तमाइक्खइ, जहा जीवा बझंति जाव पंच अणुव्वयाई / तत्पश्चात् जितशत्रु राजा ने सुबुद्धि से कहा-'देवानुप्रिय ! तो मैं तुमसे जिनवचन सुनना चाहता हूँ।' तब सुबुद्धि मंत्री ने जितशत्रु राजा को केवली-भाषित चातुर्याम रूप अद्भुत धर्म कहा / जिस प्रकार जीव कर्म-बंध करते हैं, यावत् पाँच अणुव्रत हैं, इत्यादि धर्म का कथन किया। किन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org