Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 292 ] [ ज्ञाताधर्मकथा समुद्दे जाव एडेमि ताव तुब्भे इहेव पासायडिसए सुहंसुहेणं अभिरममाणा चिट्ठह / जइ णं तुम्भे एयंसि अंतरंसि उविग्गा वा, उस्सुया वा, उप्पुया वा भवेज्जाह, तो णं तुम्भे पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह। तत्पश्चात् उस रत्नद्वीप की देवी ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा- हे देवानुप्रियो ! मैं शक्रेन्द्र के वचनादेश (प्राज्ञा) से, सुस्थित नामक लत्रणसमुद्र के अधिपति देव द्वारा यावत् (पूर्वोक्त प्रकार से सफाई के कार्य में) नियुक्त की गई हूँ। सो हे देवानुप्रियो! मैं जब तक लवणसमुद्र में से यावत् कचरा प्रादि दूर करने जाऊँ, तब तक तुम इसी उत्तम प्रासाद में आनन्द के साथ रमण करते हुए रहना / यदि तुम इस बीच में ऊब जाओ, उत्सुक होनो या कोई उपद्रव हो, तुम पूर्व दिशा के वनखण्ड में चले जाना। २२–तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तंजहा–पाउसे य वासारत्ते य / तत्थ उकंदल-सिलिध-दंतो णिउर-वर-पुप्फपीवरकरो। कुडयज्जुण-णीव-सुरभिदाणो, पाउसउउनायवरो साहीणो // 1 // तत्थ यसुरगोवमणि विचित्तो, दरद्कुलरसिय-उज्झररवो। बरहिणविंद-परिणद्धसिहरो, वासाउउ-पवतो साहीणो // 2 // तत्थ णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! बहुसु वावीसु य जाव सरसरपंतियासु बहुसु आलोघरएसु य मालोघरएसु य जाव कुसुमघरएसु य सुहंसुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जाह / उस पूर्व दिशा के वनखण्ड में दो ऋतुएँ सदा स्वाधीन हैं—विद्यमान रहती हैं / वे यह हैंप्रावष् ऋतु अर्थात् आषाढ और श्रावण का मौसम तथा वर्षारात्र अर्थात् भाद्रपद और आश्विन का मौसम / उनमें से-(उस वनखण्ड में सदैव) प्रावष् ऋतु रूपी हाथी स्वाधीन है। कंदल-नवीन लताएँ और सिलिंध्र-भूमिफोड़ा उस प्रावृष्-हाथी के दांत हैं / निउर नामक वृक्ष के उत्तम पुष्प ही उसकी उत्तम सूड़ हैं / कुटज, अर्जुन और नीष वृक्षों के पुष्प ही उसका सुगंधित मदजल हैं। (यदि सब वृक्ष प्रावष ऋतु में फूलते हैं, किन्तु उस वनखण्ड में सदैव फूले रहते हैं / इस कारण प्रावष को वहाँ सदा स्वाधीन कहा है / ) और उस वनखण्ड में वर्षाऋतु रूपी पर्वत भी सदा स्वाधीन-विद्यमान रहता है, क्योंकि वह इन्द्रगोप (सावन की डोकरी) रूपी पद्मराग आदि मणियों से विचित्र वर्ण वाला रहता है, और उसमें मेंढकों के समूह के शब्द रूपी झरने की ध्वनि होती रहती है / वहाँ मयूरों के समूह सदैव शिखरों पर विचरते हैं हे देवानुप्रियो ! उस पूर्व दिशा के उद्यान में तुम बहुत-सी बावड़ियों में, यावत् बहुत-सी सरोवरों की श्रेणियों में, बहुत-से लतामण्डपों में, वल्लियों के मंडपों में यावत् वहुत-से पुष्पमंडपों में सुखे-सुखे रमण करते हुए समय व्यतीत करना / 23 --जइ णं तुब्भे एत्थ वि उन्विग्गा वा उस्सुया उप्पुया वा भवेज्जाह तो णं तुम्भे उत्तरिल्लं वणसंडं गच्छेज्जाह / तत्थ णं दो उऊ सया साहीणा, तंजहा-सरदो य हेमंतो य / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org