________________ नवम अध्ययन : माकन्दी / [ 297 तब शूली पर चढ़े उस पुरुष ने माकन्दीपुत्रों से इस प्रकार कहा---'हे देवानुप्रियो ! यह रत्नद्वीप की देवी का वधस्थान है / देवानुप्रियो ! मैं जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में स्थित काकंदी नगरी का निवासी अश्वों का व्यापारी हूँ। मैं बहुत-से अश्व और भाण्डोपकरण पोतवहन में भर कर लवणसमुद्र में चला / तत्पश्चात् पोतवहन के भग्न हो जाने से मेरा सब उत्तम भाण्डोपकरण डूब गया। मुझे पटिया का एक टुकड़ा मिल गया। उसी के सहारे तिरता-तिरता मैं रत्नद्वीप के समीप आ पहुँचा / उसी समय रत्नद्वीप की देवी ने मुझे अवधिज्ञान से देखा / देख कर उसने मुझे ग्रहण कर लिया-अपने कब्जे में कर लिया, वह मेरे साथ विपुल कामभोग भोगने लगी। तत्पश्चात् रत्नद्वीप की वह देवी एक बार, किसी समय, एक छोटे-से अपराध पर अत्यन्त कुपित हो गई और उसी ने मुझे इस विपदा में पहुँचाया है / देवानुप्रियो! नहीं मालूम तुम्हारे इस शरीर को भी कौन-सी आपत्ति प्राप्त होगी ?' ३५-तए णं ते मागंदियदारया तस्स सूलाइयगस्स अंतिए एयमझें सोच्चा णिसम्म बलियतरं भीया जाव संजातभया सूलाइययं पुरिसं एवं वयासी-'कहं णं देवाणुप्पिया! अम्हे रयणदीवदेवयाए हत्थाओ साहत्थि णित्थरिज्जामो ?' तत्पश्चात् वे माकन्दीपुत्र शूली पर चढ़े उस पुरुष से यह अर्थ (वृत्तांत) सुनकर और हृदय में धारण करके और अधिक भयभीत हो गये / उनके मन में भय उत्पन्न हो गया। तब उन्होंने शूली पर चढ़े पुरुष से इस प्रकार कहा–'देवानुप्रिय ! हम लोग रत्नद्वीप के देवता के हाथ से--चंगुल से किस प्रकार अपने हाथ से अपने आप निस्तार पाएँ-छुटकारा पा सकते हैं ?' अर्थात् देवी से छुटकारा पाने का क्या उपाय है ? शैलक यक्ष 36 तए णं से सूलाइयए पुरिसे ते मागंदियदारगे एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्ले वणसंडे सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे सेलए नामं आसरूवधारी जवखे परिवसइ / तए णं से सेलए जक्खे चोद्दस-ट्ठमुद्दिट्ट-पुण्णमासिणीसु आगयसमए पत्तसमए महया महया सद्देणं एवं वदइ- 'कं तारयामि ? कं पालयामि ?' तत्पश्चात् शूली पर चढ़े पुरुष ने उन माकन्दीपुत्रों से कहा-'देवानुप्रियो ! इस पूर्व दिशा के वनखण्ड में शैलक यक्ष का यक्षायतन है। उसमें अश्व का रूप धारण किये शैलक नामक यक्ष निवास करता है। वह शैलक यक्ष चौदस, अष्टमी, अमावस्या और पूर्णिमा के दिन आगत समय और प्राप्त समय होकर अर्थात् एक नियत समय आने पर खूब ऊँचे स्वर में इस प्रकार बोलता है--'किसको तारू ? किसको पालू ?' ३७--तं गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं सेलगस्स जक्खस्स महरिहं पुप्फच्चणियं करेह, करित्ता जपणुपायवडिया पंजलिउडा विणएणं पज्जुवासमाणा चिट्ठह / जाहे णं से सेलए जक्खे आगयसमए एवं वएज्जा-'कं तारयामि ? कं पालयामि ?' ताहे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org