________________ नवम अध्ययन : माकन्दी] [295 वैक्रिय समुद्घात से विक्रिया की / विक्रिया करके उत्कृष्ट-उतावली देवगति से इक्कीस बार लवणसमुद्र का चक्कर काटने में प्रवृत्त हो गई / माकन्दीपुत्रों का वन-गमन २८-तए णं ते मागंदियदारया तओ मुहत्तंतरस्स पासायडिसए सई वा रइंवा धिई वा अलभमाणा अण्णमण्णं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! रयणहीवदेवया अम्हे एवं वयासी-एवं खलु अहं सक्कवयणसंदेसेणं सुट्ठिएणं लवणाहिवइणा जाव वावत्ती भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हें देवाणुप्पिया ! पुरच्छिमिल्लं वणसंडं गमित्तए। अण्णमण्णस्स एयमझें पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव पुरच्छिमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता तत्थ णं वावीसु य जाव अभिरममाणा आलीघरएसु य जाव विहरति / तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र देवी के चले जाने पर एक मुहूर्त में ही (थोड़ी ही देर में) उस उत्तम प्रासाद में सुखद स्मृति, रति और धृति नहीं पाते हुए आपस में इस प्रकार कहने लगे-'देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे इस प्रकार कहा है कि-शक्रेन्द्र के वचनादेश से लवणसमुद्र के अधिपति देव सुस्थित ने मुझे यह कार्य सौंपा है, यावत् तुम दक्षिण दिशा के वनखण्ड में मत जाना, ऐसा न हो कि तुम्हारे शरीर का विनाश हो जाय / ' तो हे देवानुप्रिय ! हमें पूर्व दिशा के वनखण्ड में चलना चाहिए। दोनों भाइयों ने आपस के इस विचार को अंगीकार किया। वे पूर्व दिशा के वनखण्ड में आये / पाकर उस वन के अन्दर वावड़ी आदि में यावत् क्रीडा करते हुए वल्लीमंडप आदि में यावत् विहार करने लगे। २९--तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा जेणेव उत्तरिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता तत्थ णं वावीसु य जाव आलीघरएसु य विहरति / तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए उत्तर दिशा के वनखण्ड में गये / वहाँ जाकर वावड़ियों में यावत् वल्लीमंडपों में विहार करने लगे। ३०-तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा जेणेव पच्चस्थमिल्ले वणसंडे तेणेव उवागच्छंति, उवाच्छित्ता जाव विहरति / तत्पश्चात् वे माकंदीपुत्र वहाँ भी सुखद स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए पश्चिम दिशा के वनखण्ड में गये / जाकर यावत् विहार करने लगे। ३१-तए णं ते मागंदियदारया तत्थ वि सई वा जाव अलभमाणा अण्णमण्णं एवं क्यासीएवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे रयणद्दीवदेवया एवं वयासी—'एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! सक्कस्स वयणसंदेसेणं सुट्टिएण लवणाहिवइणा जाव मा णं तुम्भं सरीरगस्स वावत्ती भविस्सइ / ' तं भवियत्वं एत्य कारणेणं / तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिल्लं वणसंडं गमित्तए, त्ति कटु अण्णमण्णस्स एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता जेणेव दविखणिल्ले वणसंडे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। __तब वे माकंदीपुत्र वहाँ भी सुख रूप स्मृति यावत् शान्ति न पाते हुए आपस में इस प्रकार कहने लगे-'हे देवानुप्रिय ! रत्नद्वीप की देवी ने हमसे ऐसा कहा है कि-'देवानुप्रियो ! शक्र के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org