________________ पाठवां अध्ययन : मल्ली | [ 269 उपयोग लगाने पर उसे ज्ञात हुप्रा-तब इन्द्र को मन में ऐसा विचार, चिन्तन, एवं खयाल हुआ कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, मिथिला राजधानी में कुम्भ राजा की पुत्री मल्ली अरिहन्त ने एक वर्ष के पश्चात् 'दीक्षा लूगी 'ऐसा विचार किया है / १५४-'तं जीयमेयं तीय-पच्चप्पन्न-मणागयाणं सक्काणं देविदाणं देवरायाणं, अरहताणं भगवंताणं णिक्खममाणाणं इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलित्तए / तं जहा-- तिण्णेव य कोडिसया, अडासोइं च होंति कोडीओ। असिइं च सयसहस्सा, इंदा दलयंति अरहाणं / / (शक्रन्द्र ने आगे विचार किया-) तो अतीत काल, वर्तमान काल और भविष्यत् काल के शक देवेन्द्र देवराजों का यह परम्परागत प्राचार है कि-तीर्थंकर भगवंत जव दीक्षा अंगीकार करने को हों, तो उन्हें इतनी अर्थ-सम्पदा (दान देने के लिए) देनी चाहिए। वह इस प्रकार है ___ 'तीन सौ करोड़ (तीन अरब) अट्ठासी करोड और अस्सी लाख द्रव्य (स्वर्ण मोहरें) इन्द्र अरिहन्तों को देते हैं।' १५५---एवं संपेहेइ, संपेहिता वेसमणं देवं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जाव असीइं च सयसहस्साई दलइत्तए, तं गच्छह णं देवाणुपिया ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कुभगभवर्णसि इमेयारूवं अत्थसंपयाणं साहराहि, साहरित्ता खिप्पामेव मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणाहि / ' शक्रेन्द्र ने ऐसा विचार किया। विचार करके उसने वैश्रमण देव को बुलवाया और बुला कर कहा--'देवानुप्रिय ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में, भारतवर्ष में, याबत् मिल्ली अरिहंत ने दीक्षा लेने का विचार किया है, अतएव] तीन सौ अट्ठासो करोड और अस्ली लाख स्वर्ण मोहरें देना उचित है / सो हे देवानुप्रिय ! तुम जानो और जम्बुद्वीप में, भारतवर्ष में कुम्भ राजा के भवन में इतने द्रव्य का संहरण करो- इतना धन लेकर पहुंचा दो। पहुंचा करके शीघ्र ही मेरी यह आज्ञा वापिस सौंपो। १५६--तए णं से वेसमणे देवे सक्केणं देविदेणं देवरन्ना एवं वुत्ते समाणे हद्वतुठे करयल जाव' पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता जंभए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! जंबुद्दीवं दीवं भारहं वासं मिहिलं रायहाणि, कुभगस्स रणो भवणंसि तिन्नेब य कोडिसया, अट्ठासीयं च कोडीओ असीइं च सयसहस्साई अयमेयारूवं अस्थसंपयाणं साहरह, साहरिता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह।' तत्पश्चात् वैश्रमण देव, शक देवेन्द्र देवराज के इस प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हुआ / हाथ जोड़ कर उसने यावत् मस्तक पर अंजलि घुमाकर अाज्ञा स्वीकार की। स्वीकार करके ज़ भकदेवों को बुलाया। बुलाकर उनसे इस प्रकार कहा–'देवानुप्रियो ! तुम जम्बूद्वीप में भारतवर्ष में और मिथिला राजधानी में जानो और कुम्भ राजा के भवन में तीन सौ अट्ठासी करोड अस्सी लाख अर्थ सम्प्रदान का संहरण करो, अर्थात् इतनी सम्पत्ति वहाँ पहुंचा दो। संहरण करके यह आज्ञा मुझे वापिस लौटायो। 1. प्रथम प्र.१८ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org