Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ अाठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 275 १७३–तए णं सक्के देविदे देवराया आभियोगिए सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'खियामेव अणेगखंभं जाव मनोरम सीयं उवट्ठवेह / ' जाव सावि सीया तं चेव सीयं अणुपविट्ठा / तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक ने पाभियोगिक देवों को बुलाया। बुलाकर उनसे कहा---- शीघ्र ही अनेक खम्भों वाली यावत् मनोरमा नामक शिविका उपस्थित करो।' तब वे देव भी मनोरमा शिविका लाये और वह शिविका भी उसी मनुष्यों की शिविका में समा गई। 174- तए णं मल्ली अरहा सोहासणाओ अब्भुढ्इ, अब्भुद्वित्ता जेणेव मणोरमा सीया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मणोरमं सीयं अणुपयाहिणी करेमाणा मणोरमं सीयं दुरूहइ / दुरूहित्ता सोहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने। तत्पश्चात् मल्ली अरहन्त सिंहासन से उठे / उठकर जहां मनोरमा शिविका थी, उधर आये पाकर मनोरमा शिविका को प्रदक्षिणा करके मनोरमा शिविका पर आरूढ हुए / प्रारूढ होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर विराजमान हुए। १७५-तए णं कुभए राया अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेइ / सद्दावित्ता एवं वयासी'तुब्भे णं देवाणुप्पिया! व्हाया जाव (कयबलिकम्मा कयकोउअमंगलपायच्छित्ता) सवालंकारविभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह / ' तेवि जाव परिवहति / तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने अठारह जातियों--उपजातियों को बुलवाया। बुलवा कर कहा'हे देवानुप्रियो ! तुम लोग स्नान करके यावत् [बलिकर्म करके तथा कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चित्त करके] तथा सर्व अलंकारों से विभूषित होकर मल्ली कुमारी की शिविका वहन करो।' यावत् उन्होंने शिविका वहन को। १७६–तए णं सक्के देविदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हइ, ईसाणे उत्तरिल्लं उवरिल्लं बाहं गेष्हइ, चमरे दाहिणिल्लं हेट्ठिलं, बली उत्तरिल्लं हेछिल्लं / अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहति / तत्पश्चात् शक्र देवेन्द्र देवराज ने मनोरमा शिविका की दक्षिण तरफ की ऊपरी वाहा ग्रहण की (वहन की), ईशान इन्द्र ने उत्तर तरफ की ऊपरी बाहा ग्रहण की, चमरेन्द्र ने दक्षिण तरफ की और बली ने उत्तर तरफ की निचली बाहा ग्रहण की। शेष देवों ने यथायोग्य उस मनोरमा शिविका को वहन किया। 177- पुटिव उक्खित्ता माणुस्सेहि, तो हट्ठरोमकूवेहि / पच्छा वहंति सोयं, असुरिंदसुरिंदनागेंदा // 1 // चलचवलकुडलधरा, सच्छंदविउव्वियाभरणधारी / देविददाविदा, वहन्ति सीयं जिणिदस्स // 2 // मनुष्यों ने सर्वप्रथम वह शिविका उठाई। उनके रोमकूप (रोंगटे) हर्ष के कारण विकस्वर हो रहे थे / उसके बाद असुरेन्द्रों, सुरेन्द्रों और नागेन्द्रों ने उसे वह्न किया // 1 // चलायमान चपल कुण्डलों को धारण करने वाले तथा अपनी इच्छा के अनुसार विक्रिया से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org