Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 280 ] [ ज्ञाताधर्मकथा अनुत्तरोपपातिक (सर्वार्थसिद्ध आदि विमानों में जाकर फिर एक भव लेकर मोक्ष जाने वाले) साधुओं की सम्पदा थी। १९३-मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था। तंजहा-जुगंतकरभूमी, परियायतकरभूमी य / जाव वीसइमाओ पुरिसजुगाओ जयंतकरभूमी, दुवासपरियाए' अंतमकासी। मल्लो अरहन्त के तीर्थ में दो प्रकार को अन्तकर भूमि हुई / वह इस प्रकार ----युगान्तकर भूमि और पर्यायान्तकर भूमि / इनमें से शिष्य-प्रशिष्य आदि बीस पुरुषों रूप युगों तक अर्थात् बीसवें पाट तक युगान्तकर भूमि हुई, अर्थात् बीस पाट तक साधुनों ने मुक्ति प्राप्त की। (बीसवें पाट के पश्चात् उनके तीर्थ में किसी ने मोक्ष प्राप्त नहीं किया / ) और दो वर्ष का पर्याय होने पर अर्थात् मल्ली अरहन्त को केवलज्ञान प्राप्त किये दो वर्ष व्यतीत हो जाने पर पर्यायान्तकर भूमि हुई-भव-पर्याय का अन्त करने वाले–मोक्ष जाने वाले साधु हुए / (इससे पहले कोई जीव मोक्ष नहीं गया)। १९४-मल्ली गं अरहा पणुवीसं धणि उड्ढे उच्चत्तेणं, वण्णेणं पियंगुसमे, समचउरंससंठाणे, वज्जरिसभनारायसंघयणे, मज्झदेसे सुहं सुहेणं विहरित्ता जेणेव संमेए पव्वए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता संमेयसेलसिहरे पाओवगमणमणुववन्ने / मल्ली अरहन्त पच्चीस धनुष ऊँचे थे। उनके शरीर का वर्ण प्रियंगु के समान था। समचतुरस्र संस्थान और वज्रऋषभनाराच संहनन था। वह मध्यदेश में सुख-सुखे विचर कर जहाँ सम्मेद पर्वत था, वहाँ आये / पाकर उन्होंने सम्मेदशैल के शिखर पर पादोपगमन अनशन अंगीकार कर लिया। १९५-मल्ली णं एगं वाससयं आगारवासं पणपण्णं वाससहस्साई वाससयऊणाई केवलिपरियागं पाउणित्ता, पणपण्णं वाससहस्साइं सवाउयं पालइत्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे दोच्चे पक्खे चित्तसुद्धे, तस्स णं चेत्तसुद्धस्स चउत्थीए भरणीए णक्खत्तेणं अद्धरत्तकालसमयंसि पंहिं अज्जियासएहि अभितरियाए परिसाए. पंहि अणगारसएहि बाहिरियाए परिसाए, मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं, वग्धारियपाणी, खीणे वेयणिज्जे आउए नामे गोए सिद्धे / एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियव्वा जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए, नंदीसरे अट्ठाहियाओ, पडिगयाओ। मल्ली अरहन्त एक सौ वर्ष गृहवास में रहे। सौ वर्ष कम पचपन हजार वर्ष केवली-पर्याय पालकर, इस प्रकार कुल पचपन हजार वर्ष की आयु भोग कर ग्रीष्म ऋतु के प्रथम मास, दूसरे पक्ष अर्थात स के शुक्लपक्ष और चैत्र मास के शुक्लपक्ष की चौथ तिथि में, भरणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर, अर्द्धरात्रि के समय, प्राभ्यन्तर परिषद् की पांच सौ साध्वियों और बाह्य परिषद् के पाँच सौ साधुओं के साथ, निर्जल एक मास के अनशनपूर्वक दोनों हाथ लम्बे रखकर, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघाति कर्मों के क्षीण होने पर सिद्ध हुए। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वर्णित निर्वाणमहोत्सव यहाँ भी कहना चाहिए। फिर देवों ने नन्दीश्वर द्वीप में जाकर अष्टाह्निक महोत्सव किया / महोत्सव करके अपने-अपने स्थान पर चले गये। विवेचन-टीकाकार द्वारा वर्णित निर्वाणकल्याणक का महोत्सब संक्षेप में इस प्रकार है१. पाठान्तर—चउमासपरियाए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org