Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 232] [ ज्ञाताधर्मकथा जानती थी, इसी कारण उन्होंने अपने अनुरूप प्रतिमा का निर्माण करवाया था और छहों मित्रराजाओं को विरक्त बनाने के लिए विशिष्ट प्रायोजन किया था / राजा चन्द्रच्छाय ५२-तेणं कालेणं तेणं समएणं अंगे नाम जणवए होत्था / तत्थ णं चंपानामं णयरी होत्था / तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था। उस काल और उस समय में अंग नामक जनपद था। उसमें चम्पा नामक नगरी थी। उस चम्पा नगरो में चन्द्रच्छाय नामक अंगराज-अंग देश का राजा था। ५३-तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहनकपामोक्खा बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति, अड्डा जाव' अपरिभूया। तए णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था, अहिंगयजीवाजीवे, वन्नओ। उस चम्पानगरी में अर्हन्नक प्रभृति बहुत-से सांयात्रिक (परदेश जाकर व्यापार करने वाले) नौवणिक (नौकाओं से व्यापार करने वाले) रहते थे। वे ऋद्धिसम्पन्न थे और किसी से पराभूत होने वाले नहीं थे। उनमें अर्हन्नक श्रमणोपासक (श्रावक) भी था, वह जीव-अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था / यहाँ श्रावक का वर्णन जान लेना चाहिए। ५४-तए णं तेसि अरहन्नगपामोक्खाणं संजत्ताणावावाणियगाणं अन्नया कयाइ एगयओ सहियाणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे समुप्पज्जित्था--- 'सेयं खलु अम्हं गणिमं च धरिमं च मेज्जं च परिच्छेज्जं च भंडगं गहाय लवणसमुदं पोयवहणेण ओगाहित्तए ति कटु अन्नमन्नं एयमलैं पडिसुणेति, पडिसुणित्ता गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिच्छेज्जं च भंडगं गेण्हइ, गेण्हित्ता सगडिसागडियं च सज्जेंति, सज्जित्ता गणिमस्स च धरिमस्स च मेज्जस्स च पारिच्छेज्जस्स च भंडगस्स सगडसागडियं भरेंति, भरित्ता सोहणंसि तिहि-करण-नक्खत्तमुहत्तंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाति, मित्त-णाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं भोयणवेलाए भुजावेंति जाव [भुजावेत्ता] आपुच्छति, आपुच्छिता सगडिसागडियं जोयंति, चंपाए नयरीए मझंमज्झेणं णिग्गच्छंति, णिग्गच्छित्ता जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छति। तत्पश्चात् वे अर्हन्नक आदि सांयात्रिक नौवणिक किसी समय एक बार एक जगह इकट्ठे हुए, तब उनमें आपस में इस प्रकार कथासंलाप (वार्तालाप) हुआ ____ 'हमें गणिम (गिन-गिन कर बेचने योग्य नारियल आदि), धरिम (तोल कर बेचने योग्य घृत आदि), मेय (पायली आदि में माप कर-भर कर बेचने योग्य अनाज आदि) और परिच्छेद्य (काट कर बेचने योग्य वस्त्र आदि), यह चार प्रकार का भांड (सौदा) लेकर, जहाज द्वारा लवणसमुद्र में प्रवेश करना चाहिये।' इस प्रकार विचार करके उन्होंने परस्पर में यह बात अंगीकार की। अंगीकार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड को ग्रहण किया। ग्रहण करके छकड़ा-छकड़ी तैयार किए। तैयार करके गणिम, धरिम, मेय और परिच्छेद्य भांड से छकड़ी-छकड़े भरे / भर कर शुभ तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार बनवाया / बनवाकर 1. द्वि. अ.६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org