Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ प्राठवां अध्ययन : मल्ली ] [265 वह कमल का ढक्कन हटा दिया। ढक्कन हटाते ही उसमें से ऐसी दुर्गन्ध छूटी कि जैसे मरे साँप की दुर्गन्ध हो, यावत् [मृतक गाय, कुत्ता आदि को दुर्गन्ध हो] उससे भी अधिक अशुभ / १४०-तए णं जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सहि सहि उत्तरिज्जेहि आसाई पिहेंति, पिहित्ता परम्मुहा चिट्ठति / ___तए णं सा मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-किं णं तुम्भं देवाणुप्पिया ! सएहि सहि उत्तरिज्जेहिं जाव परम्मुहा चिट्ठह ?' तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा मल्लि विदेहरायवरकन्नं एवं वयंति-- 'एवं खलु देवाणुप्पिए ! अम्हे इमेणं असुभेणं गंधेणं अभिभूया समाणा सहि सएहिं जाब चिट्ठामो।' तत्पश्चात् जितशत्रु वगैरह ने उस अशुभ गंध से अभिभूत होकर-घबरा का अपने-अपने उत्तरीय वस्त्रों से मुह ढंक लिया / मुह ढंक कर वे मुख फेर कर खड़े हो गये। तब विदेहराजवर कन्या मल्लो ने उन जितशत्र आदि से इस प्रकार कहा---'देवानुप्रियो ! किस कारण आप अपने-अपने उत्तरीय वस्त्र से मुह ढंक कर यावत् मुह फेर कर खड़े हो गये ?' तब जितशत्रु ग्रादि ने विदेहराजवरकन्या मल्ली से कहा---'देवानुप्रिय ! हम इस अशुभ गंध से घबरा कर अपने-अपने यावत् उत्तरीय वस्त्र से मुख ढंक कर विमुख हुए हैं।' १४१-तए णं मल्ली विदेहरायवरकन्ना ते जियसत्तुपामोक्खे एवं वयासी-'जइ ताव देवाणुप्पिया ! इमीसे कणगमईए जाव पडिमाए कल्लाल्लि ताओ मणुण्णाओ असण-पाण-खाइमसाइमाओ एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे पक्खिप्पमाणे इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे, इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स खेलासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसास-नीसासस्स दुरूव-मूतपूतिय-पुरीस-पुण्णस्स सडण-पडण-छयण-विद्धंसणधम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सइ ?तं मा णं तुन्भे देवाणुप्पिया ! माणुस्सएसु कामभोगेसु रज्जह, गिज्झह, मुज्झइ, अज्झोववज्जह / ' ___ तत्पश्चात् विदेहराजवरकन्या मल्ली ने उन जितशत्रु आदि राजारों से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो ! इस स्वर्णमयी (यावत्) प्रतिमा में प्रतिदिन मनोज्ञ अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार में से एक-एक पिण्ड डालते-डालते यह ऐसा अशुभ पुदगल का परिणमन हमा, तो यह औदारिक शरीर तो कफ को झराने वाला है, खराब उच्छ्वास और निश्वास निकालने वाला है, अमनोज्ञ मूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना, पड़ना, नष्ट होना और विध्वस्त होना इसका स्वभाव है, तो इसका परिणमन कैसा होगा ? अतएव हे देवानुप्रियो ! आप मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों में राग मत करो, गृद्धि मत करो, मोह मत करो और अतीव आसक्त मत होनो।' १४२–एवं खलु देवाणुप्पिया ! तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावइंसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्त वि य बालवयंसगा रायाणो होत्था, सह जाया जाव पवइया / तए णं अहं देवाणुप्पिया ! इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि-जइ णं तुम्भे चउत्थं उवसंपज्जित्ताणं बिहरह, तए णं अहं छठें उवसंपज्जित्ता णं विहरामि / सेसं तहेव सव्वं / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org