________________ पाठवां अध्ययन : मल्ली) [261 तत्पश्चात् वे जितशत्रु वगैरह छहों राजा उन दूतों से इस अर्थ को सुनकर और समझकर एकदम कुपित हुए / उन्होंने एक दूसरे के पास दूत भेजे और इस प्रकार कहलवाया-'हे देवानुप्रिय ! हम छहों राजाओं के दूत एक साथ ही (मिथिला नगरी में पहुँचे और अपमानित करके) यावत निकाल दिये गये / अतएव हे देवानुप्रिय ! हम लोगों को कुम्भ राजा की ओर प्रयाण करना (चढ़ाई करना) चाहिए।' इस प्रकार कहकर उन्होंने एक दूसरे की बात स्वीकार की / स्वीकार करके स्नान किया (वस्त्रादि धारण किये) सन्नद्ध हुए अर्थात् कवच आदि पहनकर तैयार हुए। हाथी के स्कन्ध पर प्रारूढ हए। कोरंट वक्ष के फलों की माला वाला छत्र धारण किया। श्वेत चामर उन पर डोरे जाने लगे / बड़े-बड़े घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं सहित चतुरंगिणी सेना से परिवत होकर, सर्व ऋद्धि के साथ, यावत् दुदुभि की ध्वनि के साथ अपने-अपने नगरों से निकले / निकलकर एक जगह इकट्ठे हुए / इकट्ठे होकर जहाँ मिथिला नगरी थी, वहाँ जाने के लिए तैयार हुए। १२९-तए णं कुंभए राया इमोसे कहाए लद्धठे समाणे बलवाउयं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं क्यासी-'खिप्पामेव भो देवाणुष्पिया ! हयगयरहपवरजोहकलियं सेण्णं सन्नाह / ' जाव पच्चप्पिणंति। तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने इस कथा का अर्थ जानकर अर्थात् छह राजाओं की चढ़ाई का समाचार जानकर अपने सैनिक कर्मचारी (सेनापति) को बुलाया / बुलाकर कहा-'हे देवानुप्रिय ! शीघ्र ही घोड़ों, हाथियों, रथों और उत्तम योद्धाओं से युक्त चतुरंगी सेना तैयार करो।' यावत् सेनापति से सेना तैयार करके आज्ञा वापिस लौटाई अर्थात् सेना तैयार हो जाने की सूचना दी। १३०-तए णं कुभए राया म्हाए सण्णद्धे हथिखंधवरगए सकोरेटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं सेयवरचामराहि [बीइज्जमाणे महया हय-गय-रह-पवरजोहकलियाए सेणाए सद्धि संपरिवुडे सब्बिड्डीए जाव दुंदुभिनाइयरवेणं] मिहिलं रायहाणि मज्झमज्झेणं णिग्गच्छा, णिग्गच्छित्ता विदेहं जणवयं मज्झमझेणं जेणेव देसअंते तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता खंधावारनिवेसं करेइ, करिता जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो पडिवालेमाणे जुज्झसज्जे पडिचिदाइ / तत्पश्चात् कुम्भ राजा ने स्नान किया। कवच धारण करके सन्नद्ध हआ। श्रेष्ठ हाथी के स्कन्ध पर आरूढ हुआ। कोरंट के फूलों की माला वाला छत्र धारण किया / उसके ऊपर श्रेष्ठ और श्वेत चामर ढोरे जाने लगे। यावत् [विशाल घोड़ों, हाथियों, रथों एवं उत्तम योद्धाओं से युक्त] चतुरंगी सेना के साथ पूरे ठाठ के साथ एवं दुदुभिनिनाद के साथ] मिथिला राजधानी के मध्य में होकर निकला / निकलकर विदेह जनपद के मध्य में होकर जहाँ अपने देश का अन्त (सीमा-भाग) था, वहाँ आया / पाकर वहाँ पड़ाव डाला। पड़ाव डालकर जितशत्रु प्रभृति छहों राजानों की प्रतीक्षा करता हुआ युद्ध के लिए सज्ज होकर ठहर गया। युद्ध प्रारम्भ 131 --तए णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि य रायाणो जेणेव कुभए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता कुभएणं रण्णा सद्धि संपलग्गा यावि होत्था / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org