Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ श्राठवां अध्ययन : मल्ली ] [ 233 भोजन की वेला में मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, संबंधीजनों एवं परिजनों को जिमाया, यावत् उनको अनुमति ली / अनुमति लेकर गाड़ी-गाड़े जोते / जोत कर चम्पा नगरी के बीचोंबीच होकर बाहर निकले / निकल कर जहां गंभीर नामक पोतपट्टन (बन्दरगाह) था, वहां आये। ५५–उवागच्छित्ता सगडिसागडियं मोयंति, मोइत्ता पोयवहणं सज्जति, सज्जित्ता गणिमस्स य धरिमस्स य मेज्जस्स य परिच्छेज्जस्स य चउम्विहस्स भंडगस्स भरेंति, भरित्ता तंडुलाण य समियस्स य तेल्लस्स य गुलस्स य घयस्स य गोरसस्स य उदयस्स य उदयभायणाण य ओसहाण य भेसज्जाण य तणस्स य कटुस्स य पावरणाण य पहरणाण य अन्नेसि च बहूणं पोयवहणपाउग्गाणं दवाणं पोयवहणं भरेंति / भरित्ता सोहणंसि तिहि करण-नक्खत्त-मुहत्तंसि विपुलं असणं पाणं खाइमं साइम उवक्खडाति, उवक्खडावित्ता मित्त-गाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणं आपुच्छंति, आपुच्छित्ता जेणेव पोयट्ठाणे तेणेव उवागच्छति / गंभीर नामक पोतपट्टन में आकर उन्होंने गाड़ी-गाड़े छोड़ दिए। छोड़कर जहाज सज्जित किये। सज्जित करके गणिम. धरिम, मेय और परिच्छेद्य-चार प्रकार का भां उसमें चावल, आटा, तेल, घी, गोरस (दही), पानी, पानी के बरतन, औषध, भेषज़, घास, लकड़ी, वस्त्र, शस्त्र तथा और भी जहाज में रखने योग्य अन्य वस्तुएँ जहाज में भरी / भर कर प्रशस्त तिथि, करण, नक्षत्र और मुहूर्त में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तैयार करवाया / तैयार करवा कर मित्रों, ज्ञातिजनों, निजजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों एवं परिजनों को जिमा कर उनसे अनुमति ली / अनुमति लेकर जहाँ नौका का स्थान था, वहाँ (समुद्र किनारे) पाये। ५६-तए गं तेसि अरहन्नगपामोक्खाणं जाव [संजुत्ता-नावा] वाणियगाणं परियणा जाव ताहि [इटाहि कंताहि पियाहिं मणुण्णाहि मणामाहि ओरालाहि] वरहिं अभिनंदता य अभिसंथुणमाणा य एवं क्यासी- 'अज्ज ! ताय ! भाय ! माउल ! भाइणेज्ज! भगवया समुद्देणं अभिरक्खिज्जमाणा अभिरक्खिज्जमाणा चिरं जीवह, भदं च भे, पुणरवि लद्धठे कयकज्जे अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए पासामो' त्ति कटु ताहि सोमाहि निद्धाहिं दोहाहि सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं ट्ठिीहि निरिक्खमाणा मुहुत्तमेतं संचिट्ठति / तत्पश्चात् उन अर्हन्नक आदि यावत् नौका-वणिकों के परिजन (परिवार के लोग) यावत् [इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोरम एवं उदार] वचनों से अभिनन्दन करते हुए और उनकी प्रशंसा करते हुए इस प्रकार बोले-- 'हे आर्य (पितामह) ! हे तात ! हे भ्रात ! हे मामा ! हे भागिनेय ! आप इस भगवान् समुद्र द्वारा पुनः पुनः रक्षण किये जाते हुए चिरंजीवी हों। आपका मंगल हो। हम आपको अर्थ का लाभ करके, इष्ट कार्य सम्पन्न करके, निर्दोष-विना किसी विध्न के और ज्यों का त्यों घर पर आया शीघ्र देखें।' इस प्रकार कह कर सोम, स्नेहमय, दीर्घ, पिपासा वाली-सतृष्ण और अश्रुप्लावित दृष्टि से देखते-देखते वे लोग मुहूर्त्तमात्र अर्थात् थोड़ी देर तक वहीं खड़े रहे। ५७-तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु, दिन्नेसु सरस-रत्तचंदण-दद्दर-पंचंगुलितलेसु, अणुक्खितंसि धूवंसि, पूइएसु समुद्दवाएसु संसारियांसु वलयबाहासु, ऊसिएसु सिएसु झयग्गेसु, पडुप्पवाइएसु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org