________________ 220 ] [ ज्ञाताधर्मकथा परिपाटी सहित) दो वर्ष और अट्ठाईस अहोरात्र में, सूत्र के कथनानुसार यावत् तीर्थंकर की आज्ञा से अाराधन करके, जहां स्थविर भगवान् थे, वहां आये / प्राकर उन्होंने वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार बोले २०-इच्छामो णं भंते ! महालयं सोहनिक्कीलियं तवोकम्मं तहेव जहा खुड्डागं, नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए, एगाए चेव परिवाडीए कालो एगेणं संवच्छरेणं हि मासेहि अट्ठारसे हि य अहोरत्तेहि समप्पेइ / सव्वं पि सोहनिक्कीलियं हि वासेहि, दोहि य मासेहि, बारसेहि य अहोरत्तेहिं समप्पेइ। 'भगवन् ! हम महत् (बड़ा) सिंहनिष्क्रीड़ित नामक तपःकर्म करना चाहते हैं आदि' / यह तप क्षुल्लक सिंहनिष्क्रीडित तप के समान ही जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इसमें चौंतीस भक्त अर्थात् सोलह उपवास तक पहुँचकर वापिस लौटा जाता है / एक परिपाटी एक वर्ष, छह मास और अठारह अहोरात्र में समाप्त होती है / सम्पूर्ण महासिंह निष्क्रीडित तप छह वर्ष, दो मास और बारह अहोरात्र में पूर्ण होता है / (प्रत्येक परिपाटी में 558 दिन लगते हैं, 497 उपवास और 61 पारणा होती हैं / ) २१--तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिक्कोलियं अहासुत्तं जाव' आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता थेरे भगवंते वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता बहूणि चउत्थ जाव विहरति / तत्पश्चात् वे महाबल प्रभृति सातों मुनि महासिंहनिष्क्रीडित तपःकर्म का सूत्र के अनुसार यावत् आराधन करके जहां स्थविर भगवान् थे वहाँ आते हैं। आकर स्थविर भगवान् को वन्दना करते हैं, नमस्कार करते हैं / वन्दना और नमस्कार करके बहुत से उपवास, बेला, तेला आदि करते हुए विचरते हैं। समाधिमरण २२-तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं उरालेणं तवोकम्मेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ', नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं (वक्खारपब्वयं) दुरुहंति / दुरूहित्ता जाव' दोमासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं अणसणं, चउरासीइं वाससयसहस्साई सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता चुलसीई पुव्वसयसहस्साइं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना। / तत्पश्चात् वे महाबल प्रति अनगार उस प्रधान तप के कारण शुष्क अर्थात् मांस-रक्त से हीन तथा रूक्ष अर्थात् निस्तेज हो गये, भगवतीसूत्र में कथित स्कंदक मुनि (या इसी अंग में वणित मेघ मुनि के सदृश उनका वर्णन समझ लेना चाहिए।) विशेषता यह है कि स्कंदक मुनि ने भगवान महावीर से प्राज्ञा प्राप्त की थी, पर इन सात मुनियों ने स्थविर भगवान् से प्राज्ञा ली। आज्ञा लेकर चारु पर्वत (चारु नामक वृक्षस्कार पर्वत) पर पारूढ़ हुए। आरूढ होकर यावत् दो मास की संलेखना करके-एक सौ बीस भक्त का अनशन करके, चौरासी लाख वर्षों तक संयम का पालन करके, चौरासी लाख पूर्व का कुल आयुष्य भोगकर जयंत नामक तीसरे अनुत्तर विमान में देव-पर्याय से उत्पन्न हुए। 1. प्र.अ. 196 2. प्र.अ.२०१३. भगवती श. 2 4 . प्र. अ. 206 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org