________________ आठवां अध्ययन : मल्ली] . [ 227 था, सत्य था अर्थात् नागदेव का कथन सत्य सिद्ध होता था, उसकी सेवा सफल होती थी और वह देवाधिष्ठित था। ३८-तत्थ णं नयरे पडिबुद्धी नाम इक्खागराया परिवसइ, तस्स पउमावई देवी, सुबुद्धी अमच्चे साम-दंड भेद-उपप्पयाण-नीतिसुपउत्त-णयविहण्णू जाव' रज्जधुराचितए होत्था। उस साकेत नगर में प्रतिबुद्धि नामक इक्ष्वाकुवंश का राजा निवास करता था / पद्मावती उसकी पटरानी थी, सुवुद्धि अमात्य था, जो साम, दंड, भेद और उपप्रदान नीतियों में कुशल था यावत् राज्यधुरी की चिन्ता करने वाला था, राज्य का संचालन करता था। ३९-तए णं पउमावईए अन्नया कयाई नागजन्नए यावि होत्था। तए णं सा पउमावई नागजनमुवट्ठियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धी राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल० जाव [परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्ट जएणं विजएणं बद्धावेइ ] बद्धावेत्ता एवं वयासी'एवं खलु सामी! मम कल्लं नागजन्नए यावि भविस्सइ, तं इच्छामि णं सामी ! तुहि अब्भणुनाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए, तुन्भे वि णं सामी ! मम नागजन्नंसि समोसरह / किसी समय एक बार पद्मावती देवी की नागपूजा का उत्सव आया। तब पद्मावती देवी नागपूजा का उत्सव पाया जानकर प्रतिबुद्धि राजा के पास गई / पास जाकर दोनों हाथ जोड़कर दसों नखों को एकत्र करके, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोली-~-'स्वामिन् ! कल मुझे नागपूजा करनी है। अतएव आपकी अनुमति पाकर मैं नागपूजा करने के लिए जाना चाहती हूँ। स्वामिन् ! अाप भी मेरी नागपूजा में पधारो, ऐसी मेरी इच्छा है / ' ४०–तए णं पडिबुद्धी पउमावईए देवीए एयमलैं पडिसुणेइ / तए णं पउमावई पडिबुद्धिणा रण्णा अब्भणुनाया हट्टतुट्ठा कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-'एवं खलु देवाणुप्पिया ! मम कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे मालागारे सद्दावेह, सद्दावित्ता एवं वयह-- तब प्रतिबुद्धि राजा ने पद्मावती देवी की यह बात स्वीकार की / पद्मावती देवी राजा को अनुमति पाकर हर्षित और सन्तुष्ट हुई। उसने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और कहा-- 'देवानुप्रियो ! कल यहाँ मेरे नागपूजा होगी, सो तुम मालाकारों को बुलायो और उन्हें इस प्रकार कहो 41 –'एवं खलु पउमावईए देवीए कल्लं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! जलथलयभासुरप्पभूयं दसद्धवन्नं मल्लं नागघरयंसि साहरह, एगं च णं महं सिरिदामगंडं उवणेह / तए णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवन्नेणं मल्लेणं णाणाविहभत्तिसुविरइयं करेह / तंसि भत्तिसि हंसमिय-मऊर-कोंच-सारस-चक्कवाय-मयणसाल-कोइलकुलोववेयं ईहामियं जावर भत्तिचित्तं महग्यं महरिहं विपुलं पुप्फमंडवं विरएह / तस्स णं बहुमज्झदेसभाए एगं महं सिरिदामगंडं जाव' गंधद्धणि मुयंत उल्लोयंसि ओलंबेह। ओलंबित्ता पउमावई देवि पडिवालेमाणा पडिवालेमाणा चिट्ठह / ' तए णं ते कोड बिया जाव चिठ्ठति / 1. प्रथम अ. 15 2. प्र. अ. 31 3. अष्टम अ.१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org