________________ तृतीय अध्ययन : अंडक ] [143 के योग्य होता है। पर भव में भी वह बहुत दंड पाता है यावत् [वह बार-बार मूडा जाता है, बारबार तर्जना और ताड़ना का भागी होता है, बार-बार बेडियों में जकड़ा जाता है, बार-बार घोलना पाता है, उसे बार-बार मातृमरण, पितृमरण, भ्रातृमरण, भगिनीमरण, पत्नीमरण, पुत्रमरण, पुत्रीमरण और पुत्रवधूमरण का दुःख भोगना पड़ेगा। वह बहत दरिद्रता, अत्यन्त दुर्भाग्य, अतीव इष्टवियोग, अत्यन्त दुःख एवं दुर्मनर कता का भाजन बनेगा / अनादि अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चार गतिरूप संसार-कान्तार में] परिभ्रमण करेगा। . श्रद्धा का सुफल २१-तए णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छइ / उवागच्छित्ता तसि मऊरीअंडयंसि निस्संकिए, 'सुवत्तए णं मम एत्थ कोलावणए मऊरीपोयए भविस्सई' ति कटु तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं अभिक्खणं नो उन्बत्तेइ' जाव नो टिट्टियावेइ / तए णं से मऊरीअंडए अणुव्वत्तिज्जमाणे जाव अटिट्टियाविज्जमाणे तेणं कालेणं तेणं समएणं उब्भिन्ने मऊरोपोयए एत्थ जाए। (इससे विपरीत) जिनदत्त का पुत्र जहाँ मयूरी का अंडा था, वहाँ पाया / आकर उस मयूरी के अंडे के विषय में नि:शंक रहा / 'मेरे इस अंडे में से क्रीडा करने के लिए बढ़िया गोलाकार मयूरीबालक होगा' इस प्रकार निश्चय करके, उस मयूरी के अंडे को उसने बार-बार उलटा-पलटा नहीं यावत् बजाया नहीं [हिलाया-डुलाया, छुपा नहीं] अादि / इस कारण उलट-पलट न करने से और न बजाने से उस काल और उस समय में अर्थात् समय का परिपाक होने पर वह अंडा फूटा और मयूरी के बालक का जन्म हुग्रा। २२–तए णं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरोपोययं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्टे मऊरपोसए सद्दावेइ / सद्दावित्ता एवं वयासी--तुब्भे णं देवाणुप्पिया! इमं मऊरपोययं बहूहि मऊरपोसणपाउग्गेहि दव्वेहि अणुपुत्वेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्ढेह, नटुल्लगं च सिक्खावेह / तए णं ते मऊरपोसगा जिणदत्तस्स पुत्तस्स एयमट्ठ पडिसुर्णेति, पडिसुणित्ता तं मऊरपोययं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति / उवागच्छित्ता तं मऊरपोयगं जाव नटुल्लग सिक्खाति। __ तत्पश्चात् जिनदत्त के पुत्र ने उस मयूरी के बच्चे को देखा। देखकर हृष्ट-तुष्ट होकर मयूरपोषकों को बुलाया। वुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो ! तुम मयूर के इस बच्चे को अनेक मयूर को पोषण देने योग्य पदार्थों से अनुक्रम से संरक्षण करते हुए और संगोपन करते हुए बड़ा करो और नृत्यकला सिखलायो। __ तव उन मयूरपोषकों ने जिनदत्त के पुत्र की यह बात स्वीकार की। उस मयूर-बालक को ग्रहण किया / ग्रहण करके जहाँ अपना घर था वहाँ पाये। आकर उस मयूर-बालक को यावत् नृत्यकला सिखलाने लगे। 1. तु. अ. 18 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org